Saturday, April 11, 2009

रेणु मेरे : ऐ जुलाहे आ रही है तेरी याद

फणीश्वर नाथ रेणु की रचनाओं में केंद्र स्थान से कथाओं की अनेक धाराएं एक दूसरे से काटती हुई एक समुच्चय उपस्थित करती है। आम कथा चक्रों की तरह ये पूरी नहीं होती और शिल्प स्तर पर इनमें सटीक रैखिक प्रवाह होता है। वे कथादेश रचते हैं और हमे मोह लेते हैं। रेणु ने दुनिया से जब विदा लिया, तब मेरा जन्म नहीं हुआ था। वे तो मेरे जन्म से छह वर्ष पूर्व ही 11 अप्रैल 77 की रात नौ बजे अनंत की ओर कूच कर चुके थे।

पूर्णिया और अब अररिया जिले के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च 1921 में जन्मे रेणु ने 11 अप्रैल 1977 को पटना के एक अस्पताल में दम तोड़ा। आज उनकी पुण्यतिथि है। उनके बारे में बातचीत शुरू करने से पहले धर्मयुग में 1 नवंबर 1964 में प्रकाशित पांडुलेख में रेणु की ही कलम को यहां रखना चाहूंगा। वे अपने बारे में कहते हैं-
“अपने बारे में जब कभी कुछ लिखना चाहा-जी।बी.एस.(जार्ज बनार्ड शॉ) की मूर्ति उभरकर सामने खड़ी हो जाती, आंखों में व्यंग्य और दाढ़ी में एक भेदभरी मुस्कुराहट लेकर। और कलम रूक जाती। अपने बारे में सही-सही कुछ भी लिखना संभव नहीं॥कोई भी लिख भी नहीं सकता।”


ये है रेणु की आत्मस्वीकृति, शायद इसलिए उन्होंने अपनी आत्मकथा नहीं लिखी। उनकी पुण्यतिथि पर एकांकी के दृश्य की चर्चा करना चाहूंगा। उनकी तरह महान कथाशिल्पी का पत्रकार होना, अपने आप में रोचक प्रसंग है, जिसे एकांकी के दृश्य को पढ़कर महसूस किया जा सकता है। उनके रिपोर्ताज आज भी प्रसांगिक हैं। वे खुद लिखते हैं- “गत महायुद्ध ने चिकित्साशास्त्र के चीर-फाड़ (शल्य चिकित्सा) विभाग को पेनसिलिन दिया और साहित्य के कथा विभाग को रिपोर्ताज..।“(धर्मयुग-8 नवंबर 1964)


रेणु का पहला रिपोर्ताज डायन कोसी 1947 में प्रकाशित हुआ। पूर्णिया के शरणार्थी कैंप पर लिखित एकटु आस्ते-आस्ते रिपोर्ताज पर तो सोशलिस्ट पार्टी में विवाद खड़ा हो गया था। रेणु के जिस रिपोर्ताज से मुझे सबसे अधिक लगाव है, वह है – बिदापत-नाच। इसमें रेणु लिखते हैं- “तथाकथित भद्र समाज के लोग इस नाच को देखने में अपनी हेठी समझते हैं, लेकिन मुसहर, धांगड़, दुसाध के यहां विवाह, मुंडन तथा अन्य अवसरों पर इसकी धूम मची रहती है।“ फिर रेणु कहते हैं- “आईए, आज आप भी मेरे साथ थोड़ी देर के लिए भद्रता का चोला उतार फेंकिए। वहां मुसहर टोली में जो भीड़ जमा है, वहीं आज बिदापत नाच होने जा रहा है।“


आप जब इसे पढ़ते हैं तो पाठक नहीं दर्शक बन जाते हैं, और यहीं रेणु आपका दिल जीत लेते हैं। रेणु के निधन पर निर्मल वर्मा ने लिखा- “कुछ लोग जीवन में बहुत भोगते-सहते हैं, ऐसे आदमी ऊपर से बहुत हल्के और हंसमुख दिखायी देते हैं। वे अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते, क्योंकि उनकी शालीनता उन्हें अपनी पी़ड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती है। रेणु ऐसे ही शालीन व्यक्ति थे। पता नहीं जमीन की कौन सी गहराई से उनका हल्कापन ऊपर आता था। यातना की परतों को फोड़कर उनकी मुस्कुराहट में बिखर जाता था- यह जानने का मौका कभी नहीं मिल सका।” (परिषद पत्रिका, रेणु विशेषांक)


रेणु के बारे में जबसे कुछ ज्यादा जानने-समझने की इच्छा प्रबल हुई, ठीक उस समय से पूर्णिया जिले की फिजा में धुले उनके किस्से इकट्ठा करने में लग गया। बाकी उनका लिखा जो मिलता सो पढ़ता गया। रेणु को करीब से देखने वाले एक व्यक्ति ने उनके बारे में इक बार बताया था कि उनका रचनाक्रम उनके जीवन-कर्म की तीव्रता के बीच ही अधिक हुआ था। जब-जब वे संघर्षों के बीच जूझते रहे, रचनात्मक ऊर्जा उस दरम्यान ज्यादा हासिल की। साथ ही और भी श्रेष्ठ कृतियों का सृजन किया। निश्चिन्तता और सुख-सुविधा की स्थिती में उन्होंने छोटी-छोटी फुटकल रचनाएं की।


उस शख्स ने एक और बात बताई। वो यह कि रेणु को कुत्ते पालने का बेहद शौक था। अलग-अलग नस्ल के कुत्तों और उनके गुणों की उन्हें बारीक पहचान थी। उनके पास एक झबरीला कुत्ता हुआ करता था। वे कहते थे कि कुत्तों की छठी इंद्रीय अधिक जाग्रत होती हैं, यही सजग लेखकों में पायी जाने वाली संवेदनशीलता है।


रेणु खुलकर बोलने और लिखने वाले थे, उनके कथा-पात्रों से इसे बखूबी समझा जा सकता है। इसका प्रमाण मैला-आंचल की भूमिका है। इसमें वे लिखते हैं- इसमें फूल भी है शूल भी, धूल भी है, गुलाल भी, कीचड़ भी है चंदन भी, सुंदरता भी है कुरुपता भी। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य के दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूं।


रेणु की खासियत उनका रचना संसार था। वे अपने पात्रों और परिवेश को साथ-साथ एकाकर करना जानते थे। वे कहते थे कि उनके दोस्तों ने उन्हें काफी कुछ दिया है। वे खुद लिखते हैं- “इन स्मृति चित्रों को प्रस्तुत करते समय अपने लगभग एक दर्जन करीबी लंगोटिया यारों की बेतरह याद आ रही है। वे किसानी करते हैं, गाड़ीवानी करते हैं, पहलवानी करते हैं, ठेकेदार है, शिक्षक है, एमएलए हैं, भूतपूर्व क्रांतिकारी और वर्तमानकालीन सर्वोदयी हैं, वकील हैं, मुहर्रिर हैं, चोर और डकैत हैं। वे सभी मेरी रचनाओं को खोज-खोज कर पढ़ते हैं-पढवाकर सुनते हैं और उनमें मेरे जीवन की घटनाओं की छायाएं ढूंढ़ते हैं। कभी-कभी मुझे छेड़कर कहते हैं- साले उस कहानी में वह जो लिखा है, सो वहां वाली बात है न ?” (पांडुलेख से)


रेणु को चाहने वालों में साहित्यिक बिरादरी के अलावा आम लोग भी हैं, जिन्हें रेणु के शब्दों से खास लगाव हैं। वे रेणु को प्यार करते हैं। वे आम पाठकों के रूह को छूने वाले कथाकार थे। कोलकाता का एक अभिभूत कर देने वाला प्रकरण है। तब रेणु की पहुंच फिल्म तीसरी कसम से दूर-दूर तक फैल चुकी थी। रेणु कुछ फिल्मी दुनिया के साथियों के साथ देर रात धर्मतल्ला (कोलकाता) के इलाके में अंग्रेजी शराब के संधान में लगे हुए थे। उन्हें शराब की एक दुकान दिखी, जिसका मालिक दुकान का शटर गिरा चुका था और ताला लगा रहा था। रेणु ने जाकर उससे मनुहार की कि उन्हें शराब दे दी जाए। दुकानदार ने झुंझलाते हुए कहा- दुकान बंद हो चुकी है, शराब नहीं मिलेगी।


रेणु ने निराश होकर अपने साथियों को और दुकानदार को देखा। उनके मुंह से बरबरस निकल पड़ा- इस्सस थोड़ी देर पहले आ जाते तो....। दुकानदार ने चौंक कर रेणु को देखा। लंबे-लंबे घुंघराले बाल। संभवत उसने रेणु की कहीं तस्वीर देखी होगी। उसने पूछा अरे आप रेणु हैं। रेणु चौंके और कहा- हां। दुकानदार अपनी खुशी छुपा न सका। उसने झटपट दुकान खोली और रेणु के हाथों में शराब की कुछ बोतले थमाते हुए पूछा- तीसरी कसम के नायक हीरामन के जुबान पर सादगी भरे लहजे में लजालू अभिव्यक्ति सूचक इस्स्स चढ़ाने की सूझी कैसे आपको। रेणु किंकर्त्तव्यविमूढ़ , क्या जवाब देते॥बस हंसते रहे........।


ये थी रेणु की पहुंच। वे साहित्य के जरिए चोट मारने में भी माहिर थे। उनकी एक कविता है- मंगरू मियां के नए जोगीड़े (वर्ष 1950)। इसमें वे राजनीतिक दलों पर चोट मारते कहते हैं-


कांग्रेस की करो चाकरी, योग्य सदस्य बनाओ,

परम
पूज्य का ले परवाना खुलकर मौज उड़ाओ
जोगीजी सर-र-र॥

खादी पहनो, चांदी काटो, रहे हाथ में झोली

दिन दहाड़े करो डकैती, बोल सुदेशी बोली

जोगीजी सर-र-र॥


अपनी इन्हीं कृतियों के कारण रेणु आज भी जीवंत हैं। यदि आप कोसी के इलाकों में गए हैं तो वहां महसूस करेंगे उनके क्रेज को। उनके साहित्य में डूबे रहने की आदत से ही पता चला कि मनुष्य की आकृति, रूप-रंग, बोलचाल, उसके व्यक्तित्व की वास्त्विक कसौटी नहीं है और न हीं बड़ी-बड़ी इमारतों से देश की प्रगति मापी जा सकती है। दरअसल बहुत बार जिन्हें हम भद्दा और कुरूप समझते हैं, उनमें मनुष्यता की ऐसी चिनगारी छिपी रहती है, जो भविष्य को भी जगमग कर सके। जैसा मैला-आंचल में रेणु ने बावनदास जैसे चरित्र को पेश किया। उपन्यास में बावनदास की मौत पर रेणु की मार्मिक टिप्पणी के साथ, मैं उन्हें सलाम करना चाहूंगा-“दो आजाद देशों की, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की ईमानदारी को, इंसानियत को बावनदास ने बस दो ही डगों में माप लिया।“ (मैला आंचल पृष्ठ संख्या 320)

4 comments:

prabhat gopal said...

acha prayas.

chavannichap said...

renu ke shabd aaj bhi goonjte hain kanon mein mithas ke saath...dhanywad.

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...
This comment has been removed by the author.
विनीत कुमार said...

कोर्स के लिहाज से रेणु के बारे में बताए जाने से बिल्कुल अलग अभिव्यक्ति।......