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विश्वनाथ प्रताप सिंह, राजनीति के दांव-पेंच के अलावे कविता और पेंटिग के लिए भी पहचाने जाते हैं। कुछ दिनो पहले एक किताब हाथ लगी. "मंजिल से ज्यादा सफर"
राजकमल प्रकाशन की इस किताब में इनकी कुल 11 कविताऐं हैं। दरअसल . "मंजिल से ज्यादा सफर" पूर्णतया विश्वनाथ प्रताप सिंह पर हीं है। यहां जो कविता मुझे पसंद आयी, वही आपके सामने................
1.
अपनी ही पहचान बनाने में
जब सब अपनी जान लगाए हों
तो बताओ यहां कैसे
जान-पहचान हो....
2.
जो एक्का भी न बन सके
और दुग्गी भी
मौका पड़ने पर बादशाह
और फिर गुलाम भी
वही है जोकर
यानी "जो वक्त कहे सो कर"
इसलिए
सत्ता में भी ऐसा ही पत्ता
सबसे ज्यादा चलता है
गड्डी चाहे जितनी फेंटो
जोकर
सबके ऊपर हावी रहता है।
4
कितनी रंगीनियां झेल चुका हूं
सिनेमा-स्क्रीन की तरह
औरों के लिए
कहानी हूं
अपने लिए
कोरा का कोरा हूं--------------------........
6 comments:
बहुत सुन्दर रचना है-
अपनी ही पहचान बनाने में
जब सब अपनी जान लगाए हों
तो बताओ यहां कैसे
जान-पहचान हो....
जो एक्का भी न बन सके
और दुग्गी भी
मौका पड़ने पर बादशाह
और फिर गुलाम भी
वही है जोकर
यानी "जो वक्त कहे सो कर"
इसलिए
सत्ता में भी ऐसा ही पत्ता
सबसे ज्यादा चलता है
गड्डी चाहे जितनी फेंटो
जोकर
सबके ऊपर हावी रहता है।
राजनेता ही एसा सच लिखे तो लगता है कि व्यवस्था नें आईना देखना भी सीख लिया है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
झा जी,
कवितायें अच्छी लगी ...हम तक इसे लाने का हार्दिक धन्यवाद....
झा भाई राजा साहब समाजवादी चिंतक है वो एक्का, दुक्की, जोकर सब की नब्ज पहचानते है राजा होते हुए भी समाज को जिया है । धंयवाद उनकी रचना पेश करने के लिये
विश्वनाथ प्रताप सिंग जी की कविताओं का अच्छा संकलन लाये हैं, साधुवाद. पढ़कर अच्छा लगा.खासकर ४थी रचना.
बहुत सुंदर प्रस्तुति है यह… और एक विभिन्नता भी जो अच्छी लगी…।
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