Thursday, February 15, 2007

विद्रोह है या क्रांति


ब्रजेश कुमार झा का लेखन की दुनिया से पुराना नाता है, जमकर लिखते हैं, किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली से इन्होने अपनी पढ़ाई पूरी की। सम्प्रति पत्रकारिता की दुनिया से जुड़े हुए हैं। फिल्मी गीतों पर इनका अध्ययन काफी रोचक है। पिछले साल सराय-सीएसडीएस के स्वतंत्र शोधवृत्ति कार्यक्रम मे इन्होनें हिन्दी फिल्मों के गीतों पर शोध किया। आजकल भी इनका शोधकार्य जारी है, यह अलग बात है कि सराय के कार्यक्रम से ये अब जुड़े हुए नहीं है. तथापि इनका काम हिन्दी फिल्मी गीतों को लेकर चलता ही रहेगा। यहां पेश कर रहा हूं, उनके एक आलेख का जो काफी दिन पहले मुझे मेल पर मिला। आनंद उठाइए...
(यह आलेख उस समय का है जब "रंग दे बसंती" फिल्म हमलोगों के सामने आयी थी. )
कैसा लगा जरूर बतायें.

क्या है न कि बालीवुड में कबीरा चल चला चल वाली स्थिति है। सही भी है। आखिर रूका क्या है जो रहेगा। फिल्में आनी -जानी हैं। जो फिल्में दर्शक के दिमागों पर चढ़ जाती है वो जाने में थोड़ा वक्‍त लगाती है।ठीक यही स्थिति बड़े जगहों में ' रंग दे बसंती को ' लेकर भी हुई। फिल्म आई और दम भर चली। लोगों ने कई-कई बार फिल्म को देखा। वे लगातार बेचैनी महसूस करते रहे। गाने लगे-
घर बता कर आए है ,
हम सुलगने आए है,

खलबली है खलबली

है खलबली……… ।

तभी तो अखबारों- पत्रिकाओं के कई पन्ने खर्च हो गए इसके पीछे।

बालीवुड में हर हप्‍ते दसों फिल्में आती हैं। किन्तु, इससे शहरी जीवन में बाहरी बदलाव को छोड़ कर कोई खास बात नहीं होती। यहां युवा वर्ग अपनी मर्जी से मनचाहा रफ्तार लेता है। ' धूम' आई तो बड़े शहरों में मोटरसाइकिलों की आवाज और रफ्तार एक साथ बदल गई। यह साफ-साफ दिखा। छोटे शहर इससे बिलकुल अछूते रहे, कस्बों की तो बात ही छोड़ दें। उसी तरह ऐसा हरगिज नहीं है कि ' रंग दे बसंती' आई और बसंती-बसंती लगा पूरा देश करने। छोटे शहरों, गांव– कस्बों में कोई खलबली नहीं मची है।जबकि इस पंक्‍ति के लेखक का ख्याल है कि देश के युवाओं में हताशा, बेरोजगारी का जो आलम है उस स्थिति में यह असम्भब नहीं था।

बालीवुड का इतिहास गवाह है कि पूरी फिल्म की तो बात छोड़ें केवल एक गाना ऐसी खलबली मचा सकता है। ऐसे कई उदाहरण हैं। गुलाम भारत में बनी ' बंधन' फिल्म का एक गीत है ' चल- चल रे नौजवान' ।इसे कवि प्रदीप ने लिख था। कड़े सेंसर के बावजूद इस गीत ने अंग्रेजी हुकूमत को बड़ी परेशानी में डाल दिया था। महादेव भाई देसाई ने इस गीत की उपमा उपनिषद के मंत्र से की थी। बलराज साहनी उन दिनों बी.बी.सी.लंदन में थे। इस गीत को उन्होंने लंदन से प्रसारित कर दिया। या फिर आजाद भारत में – ऐ मेरे वतन के लोगो। हाँ! यह बात सही है कि तब परिस्थितियां दूसरी थी। पर , आज से भी लोग कहां संतुष्‍त हैं। नक्‍सली गतिविधियां, आतंकवादी घटनाएं रोज अखबारी खबर बनती है। हर अगली सुबह और भी साफ होता है कि युवाओं ने अपना सब्र खोया है।

लिहाजा , बालीवुड युवाओं के वास्ते फिल्म तो बना रहा है पर छोटे शहरों व कस्बाई-ग्रामीण युवकों को अपनी ओर नहीं खींच पाता। उनसे बालीवुड का सरोकार कम होता गया है।

खैर! बालीवुड देशभक्ति की एक नई परिभाषा गड़ रहा है। फिल्मों में घटनाचक्र कुछ इस प्रकार बुने जाते हैं कि एक खासा दर्शक वर्ग के बीच द्वंद्व पैदा हो सके। वह कई अनाम भावों को जन्म देता है। युवकों में देशभक्ति का जज्बा पैदा करने से कहीं ज्यादा उन्हें विद्रोही बनाने की सफल कोशिश करता है। हु तू तू को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।

' रंग दे बसंती ' के पात्र गाते हैं- कुछ कर गुजरने को खुन चला खुन चला…… । यहं हम उसकी प्रतिबद्धता को महसूस कर सकते हैं।खासकर बड़े शहरों में रह रहे या उस ओर पलायन कर चुके युवाओं में फक्कड़पन, गैर जिम्मेदाराना रवैया व पलायनवादी प्रवृति के बावजूद एक हूब्ब है। एक जुनून है। यही बातें वक्‍त आने पर उन्हें जिम्मेदार बना देती हैं। वह कुछ भी करने को तैयार दिखता है। अंतत: कर डालता है। हु तू तू फिल्म को ही याद करें। यहां नक्सलवादियों के साथ होकर लड़की मानवबम का रूप लेती है। और तत्कालीन मुख्यमंत्री की हत्या कर देती है जो उसकी मां थी। यह बात दूसरी है कि ' रंग दे बसंती' फिल्म बड़ी होशियारी पिता की हत्या पर देशभक्‍ति का मुलम्‍मा चढ़ा कर पेश करती है।यह अटपटा भी नहीं लगता है।

पिछले साल एक फिल्म आई थी ' हजारों ख्‍वाहिशें ऐसी' इसमें विश्‍वविद्यालय के छात्र नक्सलवाड़ी आंदोलन की राह हो लिए थे। भूल-भुलैया में न रह कर क्या हम मान लें कि आजाद भारत का सच अब यही है। क्योंकि , रक्षामंत्री की हत्या तो एक आतंकवादी घटना हुई ना। वह किसी विचार के तहत की गई हो या फिर भावावेश में आकर।सिनेमा होल तालियों की गड़गड़ाहट से इतना गूंजा कि पूछिए मत! यकायक महसूस हुआ कि दर्शक ऐसे समाधानों से सहमत है। ' हु तू तू ' को अंत तक देखने की हिम्मत कम ही लोग जुटा पाए थे। अत: वहां तालियों की आवाज कम ही सुनाई देती थी। यह भी कह सकते हैं कि ' हु तू तू ' से ' रंग दे बसंती ' तक के सफर में विद्रोही प्रवृति और प्रबल हुई हो। तभी तो गाने आए —–

ऐ साल, वो अभी- अभी हुआ यकीं

की आग है मुझमें कहीं

हुई सुबह में जल गया

सूरज को मैं निगल गया।

एक बात गौरतलब है कि नई फिल्में कई दृश्‍यों व प्रसंगों का आभास मात्र कराती है। किन्तु , चुम्बन या उससे आगे के दृश्‍य स्पष्‍ट करती है। यहं प्रतीकों के दिन अब लद गए हैं। बाकी, जो खुलापन है वह हदतोड़ है। इस बदलाव को जैसी मर्जी हो वैसे देखें। बाजार की मांग के रूप में

या मानसिक खुलापम के तौर पर ।

वैसे भी ,सिनेमा दर्शकों की रुचि को परिष्‍कृत करने का जिम्मा कब का त्याग चुका है।

अब आगे–

व्यवस्था की खामी, विचारघारा की लड़ाई आदि कई चीजें बालीवुड दर्शकों को विभिन्न स्तरों पर महसूस कराता है। वह साफ करता है कि स्वतंत्र भारत में भी विरोध का कोई लोकतांत्रिक तरीका अपनाना बड़ा कठिन है। ' रंग दे बसंती' के घटना क्रम को ही याद कर लें या फिर ' हु तू तू' के दलित नेता को। यहां एक काबिल आदमी को जिन्दा लाश में तब्दील कर दिया जाता है। देश की सभी सरकारों ने अपने छोटे-बड़े कार्यकाल में कई बड़े-बड़े उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इस हमाम में कपड़े वाले कौन हैं इसे लेकर तो सतर्क निगाह के बावजूद जनता धोखा खाती रही है। ऐसे में बिस्मिल अश्फाक आदि की याद वो हमें क्या दिलाएंगे! बड़े आश्‍चर्य की बात है कि हममें बिस्मिल आदि को बाहरी निगाहों से देखने की आदत पड़ गई है। एक विदेशी लड़की हमें महसूस कराती हैं कि ऐसे व्यक्‍ति हमारे लिए कितनी अहमियत रखते हैं। वरना हमने तो अपनी आखें ही मूंद रखी हैं।

जब नया युवा वर्ग अपनी स्मृति से इन क्रांतिकारियों को बाहर कर चुका है तो वह क्रांति और विद्रोह में कैसे फर्क कर पायेगा! वह कुछ भी करेगा तो हूब्ब में ही। आगे इसके परिणाम कभी अच्छे होंगे, ऐसी सम्भावनाएं बड़ी कम रहती हैं। माचिस, हु तू तू से होता हुआ ' रंग दे बसंती' तक का अंत इसका प्रमाण है।

एक बात और यहं देशप्रेम बहुत बिकाउ है और इसका सिने जगत के कुछ लोगों बड़ा फायदा उठाया है। " रंग दे बसंती ' इसी परंपरा की एक मौलिक कड़ी है।

1 comment:

विजय said...

जो आपने विषय उठाया है, सही है। वैसे गीतों की बात की जाय तो वही स्क्रिप्ट को ध्यान में रखकर ही लिखा जाता है... मगर आपने जिस प्रकार के स्क्रिप्ट राइटिंग का जिक्र किया है उसके बारे में बिल्कुल सही लिखा है आपने कि क्राति और बदलाव ज्यादा व्यवसाय से जुड़ा है स्क्रिप्ट की मौलिकता।
वैसे भी कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो यही देखने को मिलता है कि स्क्रिप्ट लिखते समय शहरी वातावरण का ध्यान रखा जाता है, पूरे भारतवर्ष के जनमानस का नहीं.... जिसके अंतर्गत गांव अर्थात् ज्यादा आवादी है। इन्हें देश में बदलाव से ज्यादा चाहत उस समुदाय को ढूंढ़ना हैजो उनके इस उत्पाद को खरीद सके...