बिहार एक ऐसी भूमि जिसकी उर्वरता हीं उसकी पहचान है. उर्वरता के सभी
मायने में बिहार सर्वोच्य हीं रहा है. कृषि से लेकर राजनीति के पाठशाला
तक यह भू-भाग अपनी पहचान बनाए रखा है. वैसे हर पक्ष का सकारात्मक और
नकारात्मक पक्ष होता ही है, इसलिए बिहार को लेकर भी कई हलकों में बहसे
हुआ करती है. शायद जीवंत भू-भाग का होना ही बहस की मौलिकता होती है. इसी
कारण इस क्षेत्र को लेकर भी बहसे हुआ करती है.
१९१२ में जब बिहार बना था
और २००० में बिहार से बंट्कर झारखंड बना तो भी कई बहसें हुई. लेकिन इन
सबके बीच भी बिहार की उर्वरता बनी रही और अपनी जीवंत मौलिकता को बिहार
खुद में समेटे रहा. यह अलग बात है कि उद्योग के सभी प्रमुख स्थल बिहार से
जुदा होकर झारखंड के हो गये. लेकिन अभी भी बिहार के संग कई प्रमुख स्थल
जुडे हैं.
बिहार की पहचान और विकास की लडाई अरसे से लडी जा रही है. दरअसल पहचान के
लिए बिहार की जनता न केवल अपने राज्य में अपितु देश के अन्य हिस्सो में
भी संघर्ष कर रही है. बडी संख्या में बिहार के ग्रामीण इलाकों से मजदूरों
का पलायन हो या फिर शिक्षा,उद्योग,प्रंबधन या फिर पत्रकारिता के क्षेत्र
में बिहार के बुद्धिजीवियों का तबका, ये सभी देश के अलग-अलग हिस्सो में
विजय पताका लहरा रहे हैं. सच्चाई यही है कि यहां के लोग मेहनत को अपना
मौलिक अधिकार समझते हैं.जिसकारण देर ही सही सफलता इनके हाथों में चली हीं
आती है. बिना किसी राजनैतिक-सामाजिक या सैद्धांतिक वैमनस्य के ये लोग
देश-विदेश के अलग-अलग हिस्सों में अपना काम बखूबी निभा रहे हैं.
बिहार-झारखंड के विभाजन से पहले भी पिछली शताब्दी में यह राज्य भौगोलिक
विभाजन का शिकार हुआ है.
बीसवीं सदी के प्रारंभिक काल में जब बंगाल
प्रेसिडेंसी से बिहार अलग हुआ , को छोड् यहां जाति एवं वर्ग भेद को
नकारने वाला कोई राज्य केन्द्रित आन्दोलन कभी नहीं हुआ. अलग बिहार राज्य
के उस वक्त् के आन्दोलन का भी सामाजिक आधार सीमित था.
१९४७ में आजादी के वक्त बिहार की स्थिती अन्य राज्यों के तुलना में बुरी
नहीं थी. वस्तुतः उस समय राज्य में दो बडे निवेश किए गए थे. जमशेदपुर में
टाटा द्वारा इस्पात कारखाना स्थापित करने का पूर्णतः देशी औद्योगिक
उपक्रम आरंभिक बीसवीं सदी के पूरे औपनिवेशिक पटल पर संभवतः पहला और अकेला
प्रयास था. आजादी से पहले भी डालमिया द्वारा बिहार के मैदानी
हिस्से(डालमियानगर)में भारी औद्योगिक निवेश किया गया था. आजादी के बाद इन
प्रयासों को और मजबूत और प्रोत्साहित करने के बजाय, बिहार की विकास-नीति
कुछ ऐसी रही कि १९६१ के आते-आते बिहार पूरे देश में नीचे से दूसरे स्थान
पर धकेल दिया गया और १९७१ तक बिहार सबसे नीचे पहुंच गया. आंकडो के जाल से
यदि हम बाहर निकलने की कोशिश करें तो अभी भी बिहार के अंदर कई उम्मीदें
उबाल मार रही है. दरभंगा,
भागलपुर,पुर्णिया,मुज्जफरपुर,
हाजीपुर,
,गया,सोनपुर आदि जगहों असीम
संभावनाये हैं. वहां तो स्थानीय स्तर पर कई कार्य हो रहे हैं. गौरतलब है
कि देश के बडे जमीन्दारों में अग्रणी दरभंगा महाराज ने स्वतंत्रता पूर्व
और देश के स्वंतत्र होने के बाद भी कई महत्वपूर्ण कार्य किए. अभी भी राज
परिवार की विशाल और भव्य इमारतें दरभंगा शहर को क्लासिक सुन्दरता प्रदान
करती है. स्थानिय विश्वविद्यालय की इमारतें और कैंपस भी कुछ यही बयां
करती है. पर्यटन के लिहाज़ से यदि इस शहर पर ध्यान दिया जाए तो बडी संख्या
में पर्यट्कों को दरभंगा अपनी खींच सकता है. अतुल्य भारत (भारत सरकार का
पर्यट्न अभियान)की कडी में भी यह शहर जुड्ने के काबिल है. इसी राजपरिवार
ने १९३२ में प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक अखबार "इंडियन नेशन" को बाजार में
उतारा. गौरतलब है कि यह अखबार अपने समय में पत्रकारिता जगत को कई मशहूर
नाम दिए हैं. बाद में इसी दरभंगा राज परिवार ने "आर्यावत" के नाम से
हिन्दी अखबारी दुनिया में कदम रखा. इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि
दरभंगा राज ने समाज विकास के क्षेत्र में कैसे-कैसे माँड्ल पेश किए.
ऐसा कहा जाता है कि इतिहास वर्तमान और अतित के बीच संवाद होता है, इसी
कारण बिहार के विषय में भी अतित को जानना जरूरी है. अपने गौरवशाली इतिहास
के कारण यहां की हर बात ही निराली है. वैसे भी बिहार संस्कृति और व्यंजन
के क्षेत्र में आकर्षक बाज़ार उपलबद्ध कराया है. पिछे पलट कर देखे तो पता
चलता है कि जब कोई भी उभरता कलाकार राष्ट्रीय पट्ल पर स्थापित होना चाहता
था तो उसे पट्ना शहर में दशहरा के अवसर पर अयोजित होने वाली संगीत-संध्या
में आना अनिवार्य था. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि बहुत से बडे
सितारे राष्ट्र स्तर की ख्याति प्राप्त करने से पहले पट्ना की गलियों में
अवतरि हुए थे. पट्ना का पुणे के समान्तर ही ट्रैक रिकार्ड रहा
है,आवश्यकता इस बात की है कि इन रिर्काडों का बाजारीकरण किया जाए.
बिहार से पलायन की स्थिती भी काफी रोचक है. ग्रामीण इलाको से पलायन हो या
फिर शहरी मध्यवर्गीय युवाओं का पलायन, ये सभी दिल्ली,मंबई,
गुवाहाटी,पंजाब आदि जगहों में अपनी स्थिती मजबूत बनाए रखे हैं. दिल्ली
जैसे महानगर में तो स्थिती और भी रोचक है. एक सर्वे के मुताबिक दिल्ली और
एनसीआर के इलाके में हर तीसरा व्यक्ति बिहार से ताल्लुक रखता है. ये लोग
दिल्ली की तकदीर बदलने में सहायक स्तंभ माने जाते हैं. मेट्रो का जाल
बिछाना हो या फिर उसका प्रबंधन हिस्सा, हर जगह इनकी उपस्थिती मायने रखती
है. कुछ यही हाल दिल्ली विश्वविद्यालय और जेएनयू का है.
बिहार की उर्वरता इन्हीं तथ्यों और पलायित लोगों से बढ्ती जा रही है.
बिहार की भौगोलिक स्थिती,प्राकृतिक सुन्दरता,पौराणिक और ऐतिहासिक महत्ता
के कारण ही बिहार की भूमि जहां खुद पर गर्व करती है वहीं संर्पूण भारत
बिहार पर खुशी जाहिर करता है. साहित्य्, संस्कृति,और संगीत के क्षेत्र
में भी बिहार की अपनी अलग पहचान है. बुद्ध्,महावीर,गांधी और जयप्रकाश
नारायण की यह कर्मभूमि असल में एक जीवंत प्रयोगशाला है. गंगा-जमुनी तहजीब
को अपनी शहनाई में पिरोने वाले शंहशाह-ए-शहनाई उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की
जन्मभूमि यह बिहार सही मायने मे अपनी पहचान और विकास का खुद मापक है.
संभावनाये हैं. वहां तो स्थानीय स्तर पर कई कार्य हो रहे हैं. गौरतलब है
कि देश के बडे जमीन्दारों में अग्रणी दरभंगा महाराज ने स्वतंत्रता पूर्व
और देश के स्वंतत्र होने के बाद भी कई महत्वपूर्ण कार्य किए. अभी भी राज
परिवार की विशाल और भव्य इमारतें दरभंगा शहर को क्लासिक सुन्दरता प्रदान
करती है. स्थानिय विश्वविद्यालय की इमारतें और कैंपस भी कुछ यही बयां
करती है. पर्यटन के लिहाज़ से यदि इस शहर पर ध्यान दिया जाए तो बडी संख्या
में पर्यट्कों को दरभंगा अपनी खींच सकता है. अतुल्य भारत (भारत सरकार का
पर्यट्न अभियान)की कडी में भी यह शहर जुड्ने के काबिल है. इसी राजपरिवार
ने १९३२ में प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक अखबार "इंडियन नेशन" को बाजार में
उतारा. गौरतलब है कि यह अखबार अपने समय में पत्रकारिता जगत को कई मशहूर
नाम दिए हैं. बाद में इसी दरभंगा राज परिवार ने "आर्यावत" के नाम से
हिन्दी अखबारी दुनिया में कदम रखा. इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि
दरभंगा राज ने समाज विकास के क्षेत्र में कैसे-कैसे माँड्ल पेश किए.
ऐसा कहा जाता है कि इतिहास वर्तमान और अतित के बीच संवाद होता है, इसी
कारण बिहार के विषय में भी अतित को जानना जरूरी है. अपने गौरवशाली इतिहास
के कारण यहां की हर बात ही निराली है. वैसे भी बिहार संस्कृति और व्यंजन
के क्षेत्र में आकर्षक बाज़ार उपलबद्ध कराया है. पिछे पलट कर देखे तो पता
चलता है कि जब कोई भी उभरता कलाकार राष्ट्रीय पट्ल पर स्थापित होना चाहता
था तो उसे पट्ना शहर में दशहरा के अवसर पर अयोजित होने वाली संगीत-संध्या
में आना अनिवार्य था. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि बहुत से बडे
सितारे राष्ट्र स्तर की ख्याति प्राप्त करने से पहले पट्ना की गलियों में
अवतरि हुए थे. पट्ना का पुणे के समान्तर ही ट्रैक रिकार्ड रहा
है,आवश्यकता इस बात की है कि इन रिर्काडों का बाजारीकरण किया जाए.
बिहार से पलायन की स्थिती भी काफी रोचक है. ग्रामीण इलाको से पलायन हो या
फिर शहरी मध्यवर्गीय युवाओं का पलायन, ये सभी दिल्ली,मंबई,
गुवाहाटी,पंजाब आदि जगहों में अपनी स्थिती मजबूत बनाए रखे हैं. दिल्ली
जैसे महानगर में तो स्थिती और भी रोचक है. एक सर्वे के मुताबिक दिल्ली और
एनसीआर के इलाके में हर तीसरा व्यक्ति बिहार से ताल्लुक रखता है. ये लोग
दिल्ली की तकदीर बदलने में सहायक स्तंभ माने जाते हैं. मेट्रो का जाल
बिछाना हो या फिर उसका प्रबंधन हिस्सा, हर जगह इनकी उपस्थिती मायने रखती
है. कुछ यही हाल दिल्ली विश्वविद्यालय और जेएनयू का है.
बिहार की उर्वरता इन्हीं तथ्यों और पलायित लोगों से बढ्ती जा रही है.
बिहार की भौगोलिक स्थिती,प्राकृतिक सुन्दरता,पौराणिक और ऐतिहासिक महत्ता
के कारण ही बिहार की भूमि जहां खुद पर गर्व करती है वहीं संर्पूण भारत
बिहार पर खुशी जाहिर करता है. साहित्य्, संस्कृति,और संगीत के क्षेत्र
में भी बिहार की अपनी अलग पहचान है. बुद्ध्,महावीर,गांधी और जयप्रकाश
नारायण की यह कर्मभूमि असल में एक जीवंत प्रयोगशाला है. गंगा-जमुनी तहजीब
को अपनी शहनाई में पिरोने वाले शंहशाह-ए-शहनाई उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की
जन्मभूमि यह बिहार सही मायने मे अपनी पहचान और विकास का खुद मापक है.
2 comments:
कैसे हो गिरेन्द्र,
बहुत दिनों बाद दिखे हो…
बिहार का अच्छा खासा खांका तैयार हुआ है…आने बाले 20 सालों में इस देश मुख बिहार की ही ओर होगा…
वर्ल्ड बैक की सर्वे के अनुसार बिहार ही ऐसा प्रदेश है जहाँ प्राकृति संसाधनों का प्रयोग नाममात्र का हुआ है…बढ़िया लिखा है…बधाई!!
पढ़ने के बाद बहुत कुछ वो भी याद आया जो हम भूलते जा रहे थे... अपना बिहार भी इतना खास है... यदि आपके पास नजर है, तो यहां नजारों की कमी नहीं...बहुत अच्छा लिखा है आपने ।
धन्यवाद ।
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