Friday, January 05, 2007

कैफे बनाम बुथ्

एक जमाना था जब टेलीफोन बुथ की अपनी खास जिंदगी हुआ करती थी.आप याद करे ९० के दशक मे बुथ के सामने लाईने लगा करती थी. उस समय का हाल कुछ और था.
यहां इन बातो को कहने का आशय यह है कि अब टेलीफोन बुथ का सामना साईबर कैफे से हो रहा है.गली-गली में साईबर कैफे का जाल बिछा हुआ है.अब तो लाइने यहा लगती है.
हुजुर्.. जब मुझे कैफे मे काम करना होता है तो आपरेटर भाई साहब बोलते है कि आप १५-२० मिनट के बाद आये, एन वक्त मुझे अपने शहर की उन दिनो की याद ताजा हो उठती है जब मै किसी टेलीफोन बुथ से फोन करने की इच्छा व्यक्त करता लेकिन बुथ पर तो लंबी लाइने लगी रह्ती थी! मै दिल्ली के अनेक इलाको का चक्कर लगाया तो कैफे की स्थिती हर जगह ऐसी ही नजर आयी.हर कोई नेट की दुनिया से इतना जुड चुका है कि वह मेल चेक किये बिना रह ही नही सकता. फोन तो मोबाईल के पास आकर सिमट गया है लेकिन कैफे नुमा जिंदगी अभी भी गलियो मे चुलक-फुदक कर रही है...म्दर असल आज ऐसा ही हो रहा है मेरे साथ शहर के इन कैफों मे ...सो लिख डाला एक चिट्ठा..

3 comments:

Anonymous said...

ठीक कहा आपने और जल्द ही वह दिन आएगा जब घर-घर में इंटरनेट हो जाएगा तब साइबर कैफे उसी तरह खाली होंगे जैसे आज STD-PCO होते हैं।

Anonymous said...

श्रीश जी सही कह रहे हैं परन्तु वह दिन आयेगा नहीं बल्कि आ चुका है, हमारे यहाँ इन्टरनेट की गिरती दरों की वजह से लगभग घर घर में लोग नैट का कनेक्शन ले रहे हैं। और अब तो लिग मोबाईल पर ही मेल चैक कर लेते हैं सॊ हाल यह है कि जिस तरह STD बूथ वाले बैठे रहते हैं ठीक वही हाल साइबर कॉफ़े वाले बैठे रहते हैं।

Anonymous said...

गिरीन्द्र जी, अहाँ एकटा नीक काज क' रहल छी. टेलीफोन बूथ पर अपन काज'स मादेँ अहाँ पछिला भेँट मे बतौने रही. ओकर आभास-आलेख हम अहाँक ब्लाग पर पढल. बहुत बहुत बधाई. अहिँक : अविनाश