मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
Wednesday, November 22, 2006
alaamara se omkara tak
साभार बीबीसी हिन्दी सेवा
'आलमआरा' से 'ओंकारा' तक का सफ़र
ज़िया उस सलाम फ़िल्म समीक्षक
ज़िया मानते हैं कि हर पीढ़ी में कुछ न कुछ ख़ास मिला है
कपूर ख़ानदान के अभी तक के सफ़र को मैं हिंदी फ़िल्म जगत की पहली टॉकीज़ 'आलमआरा' से हाल में रिलीज़ हुई 'ओंकारा' तक देखता हूँ. यह सफ़र पाँच पीढ़ियों का सफ़र है.
इस दौरान आप किसी भी दशक की फ़िल्मों को देख लीजिए, एक न एक कपूर मुख्य भूमिका में ज़रूर नज़र आया है.
पृथ्वीराज कपूर ने 'आलमआरा' से पहले कुछ बिना आवाज़ वाली फ़िल्में भी कीं. 'सिकंदर' उनमें से एक है.
90 के दशक में जैकी श्रॉफ़ और सलमान ख़ान की एक अलग छवि देखने को मिलती है और वह है हैंडसम युवा की जो अपनी तंदुरुस्त देह पर काफ़ी आत्मविश्वास है. दरअसल इसकी शुरुआत पृथ्वीराज कपूर साहब के काम से देखने को मिलती है.
उनकी शुरुआती फ़िल्में बिना आवाज़ की थीं. ऐसे में शरीर ही अपनी बात को प्रभावी तरीके से कहने का एक ज़रिया था. उन दिनों फ़िटनेस विशेषज्ञ तो थे नहीं. पृथ्वीराज कपूर ने अखाड़ों में जाकर ही भारतीय फ़िल्मों के हीरो के लिए अपने शरीर को तैयार किया.
इसके बाद राजकपूर का दौर आता है. इन्होंने फ़िल्मों को एक सामाजिक सरोकार से भी जोड़ने का काम किया. 'सत्यम शिवम सुंदरम' और 'राम तेरी गंगा मैली' में केवल देह प्रदर्शन ही नहीं था बल्कि एक सामाजिक विमर्श भी था.
इनमें कहीं न कहीं समाज के उपेक्षित वर्ग की जीत को दिखाने की कोशिश की जाती थी. 50 से लेकर 80 के दशक तक पृथ्वीराज और फिर राजकपूर की जो फ़िल्में आईं, वो दरअसल नेहरू के समाजवाद की एक झलक दिखाती हैं.
आज की सिनेमा तकनीक से चमकाया हुआ एक पत्थर बनकर रह गया है. उसमें आम आदमी की महात्वाकांक्षाएँ और संघर्ष नहीं दिखाई देता है पर राजकपूर के समय में ऐसा नहीं था.
एक अलग पहचान
इस परिवार की एक ख़ास बात और रही कि चाहे शम्मी कपूर का अभिनय देखें या पिर ऋषि कपूर का. इस बात के ग़ुलाम ये लोग नहीं रहे कि परिवार में इस तरह से काम होता आया है तो हम भी इस तरह से ही करेंगे. सबकी अपनी अलग पहचान रही है.
आप कपूर ख़ानदान को भारतीय फ़िल्म जगत से अलग कर दीजिए, भारतीय फ़िल्म जगत अधूरा ही नहीं, बहुत कमज़ोर लगेगा. चाहे धरम जी का परिवार हो या अमिताभ जी का, कोई भी ख़ानदान ऐसा नहीं रहा जिसने पाँच पीढ़ियों तक अपना योगदान दिया हो
ऐसा लगता है कि समय के साथ काम में बदलाव आया. 50 का दशक आज़ादी के फ़ौरन बाद का दौर था. इस दशक में सिद्धांतों और आदर्शों की बात होती थी. इसका प्रभाव राजनीति से लेकर समाज तक और बड़े पर्दे तक देखने को मिलती थीं.
60 और 70 के दशक में एक नई पीढ़ी भी आ गई थी जिसकी अपनी महात्वाकांक्षाएं थीं. वो एक प्रेम करनेवाले युवा की छवि थी. शशिकपूर और बाद में ऋषिकपूर इसी छवि के साथ लोगों के सामने आए.
शशिकपूर का तो प्रभाव ऐसा था कि आज भी 50 से ज़्यादा उम्र की महिलाएं शशिकपूर को सबसे ज़्यादा पसंद करती हैं.
जहाँ तक संजना कपूर के काम का सवाल है, मैं इसे लीक से हटकर नहीं देखता क्योंकि भले ही इस ख़ानदान ने कई अच्छी फ़िल्में बनाई पर उसके पीछे रंगमंच ही मुख्य भूमिका में रहा है. ये सब असल में रंगकर्मी थे. संजना ने उसी परंपरा को आगे बढ़ाया है.
हाँ, करिश्मा और करीना के फ़िल्मों में आने को मैं एक क्रांतिकारी क़दम के रूप में देखता हूँ. वजह यह है कि इससे पहले कपूर ख़ानदान की महिलाएँ फ़िल्मों में नहीं आई थीं.
बेटियाँ फ़िल्मों से दूर रहीं और फ़िल्मों में काम करने वाली महिलाएँ जब बहुएँ बनकर इस परिवार में आईं तो उन्होंने भी बड़े पर्दे को छोड़ दिया.
14-15 वर्ष की उम्र में प्रेमक़ैदी से करिश्मा का फ़िल्मों में आना एक बहुत बड़ी शुरुआत थी क्योंकि इसके पीछे न तो कोई सामाजिक समर्थन था और न ही परिवार के इतिहास में ऐसा कुछ था.
पृथ्वीराज का प्रभाव
पृथ्वीराज कपूर ने कपूर ख़ानदान के लिए वो किया जो अगर राजनीति के क्षेत्र में देखें तो मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू ने आज के गांधी परिवार के लिए किया है.
ज़िया मानते हैं कि पृथ्वीराज के परिवार में आजकल महिलाओं का ज़्यादा बोलबाला है
जिस तरह की गुणवत्ता और समझ उन्होंने अपने काम से इस देश और दुनिया को दी उसका प्रभाव आगे की पीढ़ियों पर आना बहुत स्वाभाविक सी बात है.
इसके बाद पीढ़ी दर पीढ़ी इस ख़ानदान के लोग सामने आते रहे. अभी वर्ष के आख़िर तक ऋषिकपूर के बेटे रणबीर कपूर की भी फ़िल्म आने वाली है.
किसी भी क्षेत्र में नए लोगों को आगे आने के लिए एक मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है. पृथ्वीराज कपूर केवल कपूर परिवार के लिए ही नहीं बल्कि पूरे भारतीय सिनेमा जगत के लिए उस मार्गदर्शक के तौर पर देखे जाते हैं.
आप कपूर ख़ानदान को भारतीय फ़िल्म जगत से अलग कर दीजिए, भारतीय फ़िल्म जगत अधूरा ही नहीं, बहुत कमज़ोर लगेगा. चाहे धरम जी का परिवार हो या अमिताभ जी का, कोई भी ख़ानदान ऐसा नहीं रहा जिसने पाँच पीढ़ियों तक अपना योगदान दिया हो.
इस ख़ानदान ने केवल मनोरंजन ही नहीं किया, लोगों तक कुछ बातें भी पहुँचाई हैं. वो क्रम आज भी जारी है और इसमें इस परिवार ने एक स्तर भी बनाए रखा है, किसी तरह का समझौता नहीं दिखाई देता.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
achcha blog hai aapka !
लगता है आपने अपने चिट्ठे की फीड नारद से नहीं जोड़ी है ।
narad.akshargram.com पर जाएँ और वहाँ अपने चिट्ठे की जानकारी दें ।
Post a Comment