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Saturday, March 10, 2007

उम्र ढलने पे दर-दर की ठोकरें


हम बात कर रहे हैं समाज में बसर करने वाले उस वर्ग की जो जिस्म बेच कर पेट पाल रहे हैं. इसी वर्ग में ऐसी भी वेश्यायें है जो अब बूढी हो चुकी है. कोई सहारा न मिल पाने के कारण वो अब भीख मांग रही है.हमने देखा कि इन सब की स्थिती कैसी है.आखिर ऐसी स्थिती में ये वर्ग क्या करे?
कोठा मालकिन,दलाल और पुलिस की मार खा चुकी ये सब आपको दिल्ली के जी.बी.रोड के आसपास मौजूद मंदिरो मे भीख मांगती मिल जायेंगी.अरसे पहले लखनऊ से आयी कांता बाई ऐसी ही औरतो में गिनी जाती है.
रेड लाईट एरिया मे बसर करने वाली ९५ प्रतिशत वेश्याओं के पास अपना राशन कार्ड तक नही है. आखिर यही है सच्चाई....
एक सर्वे को सही माने तो आज पूरे देश में कुल ११०० रेड्लाईट एरिया हैं और लगभग तीन लाख कोठे. इन कोठों में लगभग २५ लाख वेश्यायें देह-व्यपार मे लिप्त हैं. यदि देश की काल गर्ल को इसमे जोड दिया जाए तो यह आंकडा करोड को छू सकता है.........
तो आखिर क्या कर रही है हुक्मरान ..उन वृद्ध वेश्याओं के लिए जो हर दिन हजारो की संख्या में कोठे से बाहर निकाली जाती है....

Thursday, March 08, 2007

क्या धंधा बंद होने पर भूखे मरें..? या सड्कों पर भीख मांगे..?


दर्-दर की ठोकरें खाने वाली वृद्ध वेश्याओं की आपबीती में आज आप रू-ब्-रू होंगे मुन्नी बेगम से-

"मेरा नाम मुन्नी बाई नहीं, मुन्नी बेगम है. २० साल पहले मैं धंधा करती थी तब मेरा नाम मुन्नी बाई था. मैने यहां कोठे पर सालों तक् पेट पाला अब शरीर का आकर्षण खत्म होने पर कोई मर्द नहीं आता."

मुन्नी बेगम मूलतः उत्तर प्रदेश के रामपुर की रहने वाली है. रामपुर के एक पूर्व विधायक के भाई की पत्नी मुन्नी बेगम ने कभी सोचा भी नही होगा कि उसे उस कोने मे रहना पडेगा जिसे सभ्य समाज हिकारत की नजर से देखता है. लेकिन वहां चोरी छिपे अपनी प्यास बुझाने जरूर जाता है. पति के छोड्ने के बाद मुन्नी बेगम को मायके का भी सहारा न मिला. किसी के घर में पनाह न मिलते देख उसने दिल्ली का रूख किया. यहां काम की तलाश के दौरान किसी ने उसकी मदद नही की,उल्टे उसके जिस्म पे निगाह ही डाली. वो अंततः दिल्ली के कोठे पे पहुंची. .जहां उसे कुछ वर्षो के लिए पनाह और भोजन मिला. जवानी ढलते ही मुन्नी बाई फिर से सड्को पे आ गयी.
जिन्दगी में दस साल के ठहराव के बाद वो फिर एक बार भटकने को मजबूर है.

अब मुन्नी बाई के सवाल पर गौर फरमाऐं....

"२० सालों तक काम करने के बाद ये औरतें आखिर कहां जायें? क्या धंधा बंद होने पर भूखे मरें..? या सड्कों पर भीख मांगे..?
सरकार आम गरीब की तरह हमें क्यों नही देखती है..?

Wednesday, March 07, 2007

दर-दर की ठोकरें


अक्सर कहा जाता है कि ढ्लान से उतरना काफी तकलीफ देने वाला होता है. वह ढ्लान चाहे कैसा भी हो..सेक्स वर्कर के साथ भी ऐसा हीं होता है. सेक्स वर्कर के ज़िस्म के आकर्षण का ढ्लान उनको भुखमरी की चोखट पर ला पटकता है. ज़वानी के दिनो मे तो इनके जिस्म के खरीददारो की कमी नही होती है, लेकिन उम्र के ढ्लने के साथ ही कोठे की सीढियां भी इनलोगो से तौबा करने लगती है.
जवानी के दिनो में मुसीबत की मारी ये औरतें अंतिम विकल्प के रूप मे कोठे को अपना ठिकाना बनाती है. पर वक्त की तेज आंधी में पता नही क्या हो जाता है कि कोठे भी इनसे बेवफायी करने लगती है. बुढापे में उनके खातिर तमाम रास्ते बंद हैं. आखिर वे जयें तो जायें कहां?
दिल्ली समेत देश के अनेक क्षेत्रों की बूढी वेश्यायें पेट की आग बुझाने के लिए भीख मांगती हैं. यह वह तबका है जिसकी चिन्ता किसी को नही है. देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने अपने शासनकाल के दौरान संसद मे एक बिल पारित कर इन वेश्याओं के पुनर्वास संबंधी एक कमेटी बनायी थी. लेकिन धन के अभाव मे आज तक इस बावत कुछ नही किया जा सका.
दिल्ली के जी.बी.रोड मे मौजूद कोठे के आसपास भीख मांगती वृद्धा वेश्याओं की आपबीती अब यहां पेश की जायेगी. अपने फिल्ड वर्क के दौरान मैने जो कुछ अनुभव किया उसे यहां पेश करूंगा. मैं शुक्रगुजार हूं खैराती लाल भोला का,जिनके सहयोग से मैने इन इलाको का दौरा किया. गौरतलब है कि भोला जी ४० सालो से रेड लाइट एरिया मे काम कर रहे है.
तो दोस्तो इन लोगो की आपबीती आपके सामने कल से शुरू होगी ..तब तक के लिए अलविदा...

गिरीन्द्र्