Sunday, September 14, 2025

हिंदी दिवस- रेणु के गांव से !

हिंदी की दुनिया जिनसे समृद्ध हुई है, उनमें एक नाम फणीश्वर नाथ रेणु का भी है। रेणु हिंदी समाज के उन लोगों में से थे, जिन्हें अपने गांव से इश्क था। वे पटना से अक्सर अपने गांव आ जाया करते थे।

हम जैसे लोग भी अक्सर रेणु के गांव घूम आते हैं। बिहार के अररिया जिला में एक गांव है औराही हिंगना, यही है रेणु का ठिकाना।  

गांव से चंद किलोमीटर की दूरी से असम के सिलचर से गुजरात के पोरबंदर को जोड़ने वाली ईस्ट-वेस्ट कॉरिडोर की फोरलेन रोड भी गुजरती है। रोजाना हजारों छोटी-बड़ी गाड़ियां दौड़ती है।

हमारी नजर टकराती है हाइवे से सटे सीमेंट के सादे सपाट द्वार पर ,जिसे रेणु द्वार कहा जाता है। वहां से थोड़ा आगे बढ़ता हूं तो सिमराहा बाजार आता है, रेणु के गांव का हाट-बाजार। यहां किसी महामहिम के कर कमलों से अनावृत रेणु की सुनहरी आदमकद प्रतिमा देखने को मिलती है। और फिर इसके आगे है - रेणु का गांव औराही हिंगना।

रेणु के गांव में रेणु साहित्यकार के तौर पर नहीं के बाराबर दिखते हैं। औराही हिंगना में रेणु के नाम पर द्वार, प्रतिमा और एक शोध संस्थान के भवन के अलावा और कुछ नहीं दिखेगा।

तो सवाल उठता है कि लेखक की स्मृति किस रुप में गांव में जीवित है, तो जवाब एक ही है, किसान !

रेणु अपनी माटी में लेखक से नहीं किसान परिवार से पहचाने जाते हैं। आप उनके गांव जिस भी रास्ते से प्रवेश करेंगे, आपको माइल स्टोन पर रेणु गेट का नाम दिख ही जाएगा। लेकिन उनके साहित्य को अंकित करने वाला कुछ भी आपको दरो-दिवार भी नजर नहीं आएगा।

हालांकि उनका घर उनके साहित्य को बखूबी जी रहा है। आप किसी भी ऐसे व्यक्ति से पूछ लें, जो रेणु के घर-आंगन गया हो, वह यही कहता मिलेगा कि रेणु के घर में कुछ है,  जो हर किसी के मन को छू जाता है।

शायद उनके परिवार का आत्मीय व्यवहार। शायद उनके अपने कमरे का साक्षात दर्शन। शायद रास्ते में लहलहाते हुए खेल, आंखों में गढ़ती हुई हरियाली, खेतों के बीच पेड़ों के गुलदस्ते।

आंचलिकता के जादूगर फणीश्वरनाथ रेणु का अपने गांव औराही हिंगना से बेहद लगाव था। तमाम व्यस्तताओं के बावजूद हर 6 महीने पर गांव जरूर आया करते थे।

फणीश्वरनाथ रेणु अपनी कुटिया में बैठकर शब्दों को पिरोते थे। आज भी रेणु का वो कुटिया और उनके सामानों को विरासत के रूप में परिवार वाले सहेजकर रखे हुए हैं, जो दुनिया के शोधकर्ताओं को आकर्षित करता है।

समय के हिसाब से रेणु के ग्रामीण अंचल में बहुत कुछ बदल गया है और बहुत कुछ बदलने के कगार पर है। इन सबके बीच नहीं बदला है तो रेणु की वो कुटिया। फूस और पुआल से बना आशियाने का छत तो बांस की टट्टी पर मिट्टी लपेटे दीवाल खड़ा है।

आंचलिकता वाली ग्रामीण परिवेश की चरित्र चित्रण आज भी विद्यमान है। समय के अनुरूप छत पर नये खर (पुआल) चढ़ाये जाते हैं तो दीवाल से धूसरित हो जाती मिट्टी के लेप को भी नये लेप से समेट लिया जाता है।

इस विरासत को बचाये रखने में स्वयं रेणु के पुत्र पद्म पराग राय वेणु,अपराजित राय अप्पू और दक्षिणेश्वर राय पप्पू के साथ उनकी बहुएं लगी रहती हैं।

रेणु के गांव औराही हिंगना में विकास की बयारें बही है। यातायात के रूप में रेलवे और सड़क मार्ग की भी सुविधाएं हैं। 'परती परिकथा' की बालूचर वाली भूमि पर पक्की सड़कें हो गयी है। गांव में शिक्षा के लिए प्राइमरी, मिडल से लेकर हाई स्कूल तक आ गये हैं। वहीं चंद दूरी पर ही सिमराहा में रेणुजी के नाम से ही इंजीनियरिंग कॉलेज खुल गया है।

तो समय निकालकर आप भी देख आईए, अपने हिंदी के लेखकों का गाम-घर और महसूस करिए अपनी हिंदी को।

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