Sunday, June 21, 2020

स्मृति में बाबूजी

दिन को बांध देना किसी के नाम, ये बड़ा कठिन काम लगता है। आज जब हर कोई फादर्स डे की बात कर रहा है तो लगता है कि हम किसी दिन को बाजार के नाम कर चुके हैं जबकि पिता तो हर दिन संतान के साथ रहते हैं। मेरी स्मृति में बाबूजी की कई छवियां एक साथ बनी रहती है, ये छवियां मेरे संग यात्रा करती है।
पांच साल पहले बाबूजी एक यात्रा पर निकल गए, हम सभी को छोड़कर। 2015 का वह बरसात का महीना था, तीन साल तक बिछावन पर लेटे-लेटे शायद वे थक गए थे, वे निकलना चाहते थे, अपनी उस दुनिया से दूर जिसे उन्होंने बनाया था, खेत-खलिहान, गाछ-पानी ... यह सबकुछ छोड़कर वे चले गए। चले तो गए लेकिन वे और भी करीब बन गए मेरे। 

पहली बार हमने मौत को देखा था, उनके सिरहाने बैठा था, मौत आती है बिछावन पर लेटे शख्स को लेकर चली जाती है, नियति यही है। सफेद धोती में उनका चेहरा उस दिन और भव्य लग रहा था। उस यात्रा से मैं उनके और करीब चला गया। 

आज जब हर कोई फादर्स डे की बात कर रहा है तो लगता है कि बाबूजी अपनी कुर्सी पर किसी उपन्यास का पन्ना पलट रहे हैं और बीच में ही पढ़ना छोड़कर पूछ रहे हों कि “दुनिया आज पिता की बात कर रहा है क्या? मेरी भी स्मृति में तुम्हारे दादाजी हैं, मुझे भी अपने पिता के बारे में लिखना है, ताकि तुम भी पंखुड़ी-पंक्ति को सुना सको अपने बाबा के बाबा की कहानी....”

दरअसल बाबूजी मेरे लिए किताब ही हैं। जब तक वह सबकुछ संभाल रहे थे, तब तक मैं उनसे दूर रहा लेकिन जब वह बीमारी की चपेट में आए तो मैं उनके पास चला गया। उनके करीब रहते हुए कभी उनसे गुफ्तगू नहीं हुई लेकिन उनकी आंखों की बोली बानी समझने लगा था। वे इशारों में अपनी बात रखते थे, कभी नहीं लगा कि जीवन की यात्रा में वो थक -हार गए हों, वे मुझे और मजबूत दिखने लगे थे, एकदम स्टील फ्रेम की तरह। उनसे हमने संघर्ष करना सीखा है, उनसे हमने किताबें पढ़ना सीखा है, उनसे हमने अपने अनुभवों को शब्दों में दर्ज करना सीखा है, उनसे हमने आंखों से स्नेह देना सीखा है, उनसे हमने अपनों को प्रेम देना सीखा...

वे रोज डायरी लिखते थे। उनके गुजरने के बाद उनके शब्दों में उतरता हूं तो 60-70-80-90 के दशकों को देखने लगता हूं, किसानी की दुनिया में हुए ढेर सारे बदलावों को समझने लगता हूं। धान, पटसन, मूंग से लेकर मक्का तक के सफर को महसूस करता हूं। 

इस मौसस में जब धान के लिए हम खेत तैयार कर रहे हैं, उस वक्त उनका 1984 का सर्वोदय डायरी का एक पन्ना याद आता है, जिसमें धनरोपनी का यह गीत मिलता है – “बदरिया चलाबैत अछि बाण, सब मिलि झट-झट रोपहु धान …”

आज बाबूजी की स्मृति को दर्ज करने जब गाम में अपने अहाते में बैठा हूं तो ठीक उसी वक्त खेत में ट्रेक्टर का हल फट-फट की आवाज़ देकर माटी को ऊपर-नीचे कर रहा है। बाबूजी इस आवाज को गाम का संगीत कहते थे। रेडियो पर शास्त्रीय संगीत सुनने वाला वह शख्स कहता था कि इस आवाज के आगे सब संगीत फीका है। दरअसल धनरोपनी से पहले खेत की तैयारी करना उनका सबसे प्रिय काम हुआ करता था। 

आज बरामदे पर बैठा हूं तो हवा में ठंडापन महसूस हो रहा है। शायद कहीं आस-पड़ोस में बारिश हुई है। शायद उत्तर की तरफ़। ये सब महसूस करते हुए बाबूजी की बहुत याद आ रही है। अक्सर जब गाँव में अकेले  होता हूं, लगता है बाबूजी के सामने खड़ा हूं, वे काठ वाली कुर्सी पर बैठे हैं और माटी  और फ़सल की बातें मुझे समझा रहे हैं। ऐसे वक़्त में आँखें मूंद लेता हूं और पलकों को ख़ूब भींगने देता हूं।

मेरी स्मृति में एक बीमार पिता भी हैं, जो मेरे नायक हैं। बाबूजी ने हमेशा लोगों को सहारा दिया लेकिन इलोकट्रेट इम्बैलेंस की वजह से वे टूट गए थे। हमेशा अपने कन्धे पर भार उठाने वाले शख्स को इस कदर लाचार देखकर मेरा मन टूट जाता था। मैं उस वक़्त सबसे अधिक टूट गया जब उनके लिए व्हील चेयर खरीदकर लाया था। रास्ते में रूककर खूब रोया था। दरअसल मैंने कभी भी बाबूज़ी को सहारा लेकर चलते नहीं देखा था ...सहारा देते हुए ही देखा। आज याद करता हूं तो लगता है उस दिन भी बाबूजी सीखा रहे थे कि जीवन के हर रंग को महसूस करो... 

आज जब चनका रेसीडेंसी की बात करता हूं तब बाबूजी की लाइब्रेरी की याद आने लगती है। फ़ूस का एक सुंदर सा घर था, काठ की आलमारी थी।बाबूजी ने दादाजी के नाम से वह लाइब्रेरी तैयार की थी। मुझे कुछ कुछ याद है। लेकिन उन्होंने लाइब्रेरी की सैंकड़ों किताबें बांट दी। दिल्ली में तब पढ़ाई करता था, छुट्टी में पूर्णिया आया था मैंने तब बाबूजी से पूछा कि किताबें जो लोग ले जाते हैं वो तो लौटा नहीं रहे हैं?  तो उनका जवाब सुनकर चुप हो गया, उन्होंने कहा था- “किताब और कलम बांटनी चाहिए। लोगों में पढ़ने की आदत बनी रहे, यह जरुरी है। देना सीखो, सुख मिलेगा। “

बीमार बाबूजी को जब रोज बिछावन से उठाता था और फिर वहीं लेटाता तो उनके शरीर को छूने भर से अजीब की शक्ति मिलती थी, आज भी उनका स्पर्श महसूस करता हूं तो शक्ति मिलती है, सच तो यह है कि बाबूजी के स्पर्श करने से जो शक्ति मिली  उसे मैंने खुद को खुद से लड़ने के लिए बचाकर रखा है। यह सब लिखने की शक्ति भी उन्हीं से मिली। वे अक्सर कबीर की इस पाती को दोहराते थे- अनुभव गावै सो गीता...

बचपन की बात याद करता हूं तो अनुशासन प्रिय बाबूजी का चेहरा सामने आ जाता है। मुझे आज याद आ रहा है दसवीं पास करने के बाद जब बाबूजी ने टाइटन की कलाई घड़ी दी थी तो कहा था - "वक्त बड़ा बलवान होता है। वक्त हर दर्द की दवा भी अगले वक्त में देता है। " अब उनकी बात का मर्म समझ पा रहा हूं।
एक बार सातवीं में गणित में कम अंक आने पर बाबूजी गुस्सा गए थे। उन्होंने डपटते हुए कहा था - "जीवन गणित है और तुम उसी में पिछड़ गए..." फिर उन्होंने 12वीं में कॉमर्स विषय लेने को कहा और चेतावनी दी थी कि इसमें पिछड़ना नहीं है। पढ़ाई को लेकर उनका अनुशासन अलग था, इसमें उन्होंने समझौता नहीं किया और  इसी अनुशासन ने नए लोगों से मिलने और हमेशा पढ़ते रहने की आदत लगा दी।
प्रकृति से प्रेम और हमेशा पढ़ने की ललक, यह उनकी सीख थी, जो हमें वे दे गए। 

बाबूजी हमेशा कहते थे "जब फसल तुम्हें निराश कर दे तब उससे बात करो। खेत में टहलने लग जाओ। आशा बलवती होती है, इसे दुहराने लगो।"

बाबूजी की कही बातों को याद करते हुए आज जब यह सब लिखने बैठा हूँ तो लगता है सब सुंदर ही होगा। वे नए फसलों के संग बातें करते थे, नवान्न की पूजा करते थे। उन्हीं से सीखा कि किसान को फसल से इश्क करना चाहिए। अपनी 1968 की डायरी में वे एक जगह लिखते हैं, “ हम मूंग के दानों को सहेजेंगे, धान की बालियों से प्रेम करेंगे , नहर के पानी से जब फसल लहलहाएगी तो गेहूं की ब्रश की माफिक बाली को स्पर्श करेंगे...”

बाबूजी को फोटो फ्रेम में ही अब देखना होता है लेकिन मन के फ्रेम को वे आज भी मजबूत करते हैं, उनकी आंखें हर मोड़ पर रास्ता दिखाती है। अब जब वे अपनी माटी में मिल गए हैं तो वह माटी मेरे लिए सबकुछ हो गई, वह माटी मेरे लिए सोना बन गई है..
घर के आगे
पोखर के किनारे
जहाँ अब बाबूजी हैं
वहाँ पहुँच जाता हूं,
वहाँ उग आई हैं
ढेर सारी श्याम तुलसी
काग़ज़ का गंध
और तुलसी की महक
अब एक जैसी लगती है,
ठीक वैसे ही जैसे
बाबूजी को लगता था
उनका अपना देस!

2 comments:

Nitish Tiwary said...

आपके बाबूजी की यादें वाकई खूबसूरत हैं।

ᴘʀɪʏᴀɴᴀᴛʜ ɢᴏsᴡᴀᴍɪ said...

Outstanding sir... क्या मार्मिक प्रसंग है?
दिल छू लिया Sir ऐसे ही मैंने अपने दादाजी को देखा था !!