Saturday, October 06, 2012

उठो सखी री माँग संवारो...


लंबे अंतराल के बाद कथावाचक ने कुछ लिखने की ठानी है। अक्टूबर के जिस महीने में अंचल की सुबह शीत की बूंदों से शुरु होती थी, वहां अभी भी गरमी जारी है। हालांकि बादल डेरा जमाए हुए है, किसानी करने वाले उमड़ते-घुमड़ते बादलों को देखकर आशावान हो जाते हैं लेकिन भला आशा से पेट कहां भरने वाला ! उसके लिए तो बखारी में अन्न चाहिए।

खैर, लिखना इधर छूट सा गया है। कुछ दिनों से कथावाचक कागज-कलम- की-बोर्ड के बदले जमीन पर फसल और गाछ-वृक्ष के जरिए कथा बांचने की जुगत में लगा है। वह भी बादलों को निहारता रहता है। वहीं जब वक्त मिलता है तो ईंट-गिट्टी और सिमेंट के जरिए आशियाने को नई ऊंचाई देने लगता है। ऐसे में लिखावट आराम फरमाने लगता है, जो असल में ठीक नहीं है।

लेकिन कथावाचक जीवन के अलग रंगों में से कुछ चटखदार रंगों की तलाश में है। बरसों से जिस भूमि पर हक की  लड़ाई लड़ी जा रही थी, बस वहीं से कथावाचक ने अंचल का आलाप शुरु किया, ऐसे में की-बोर्ड पर खिटिर-पिटिर पर अल्पविराम लगाना उसे लाजमी जान पड़ा।

खैर, अब कथा की शुरुआत करते हैं। अब देखिए न, अंचल में जिस भूमि को कथावाचक जोतने चला है, वही भूमि उससे किताबी हिसाब पूछ रही है।

यह हिसाब जमीन के मालिकाना हक को लेकर है, यह हिसाब जमीन के ढेर सारे टुकड़ों को लेकर है, यह हिसाब उस जमीन को लेकर भी है जिसपर वह पांव जमाने के लिए घर बनाना चाहता है। ऐसे में उसे कबीर वाणी की याद आती है- उठो सखी री मांग संवारो, दुल्हा मो से रुठल हो !

दरअसल अंचल में कभी-कभी जमीन रूठ जाती है, ऐसे में उसे मनाने के लिए जमीन को जोतने वाला गीत गाने लगता है, इस आशा के साथ कि कहीं जमीन हंस दे। तो कोई ग्राम्य देवता की पूजा शुरु कर देता है। इन सबके बीच अंचल का लोकगीत कथावाचक के कान तक पहुंचता रहता है। वह कबीराहा मठ की ओर निकलता है। बस वहीं उसे कबीर वाणी की याद आ रही है जिसमें वे रूठने की बात करते हैं और फिर चहूं दिस धूं-धूं की बात चल पड़ती है।

जमीन को लेकर कथावाचक के अंचल में विवाद बरसों से चलता आया है। जमीनी विवाद भी यहां परिवारिक सौगात में मिलता है, इस सौगात पर हक जताना होता है। कथावाचक के मन में जब कभी इस सौगात का ख्याल आता है तो उसे ठीक उसी पल आनंद चक्रवर्ती का वह आलेख याद आता है, जिसका शीर्षक ही विवाद से शुरु होता है-
“The Unfinished struggle of Santhal Bataidars in Purnea District “

जमीनी विवादों के बीच कथावाचक को कोसी के इस पार से उस पार तक की यात्रा को लेकर भी कथा बांचना है लेकिन कथा इतनी आसान कब हुई है। कथाकार को तो इतिहासकार होना होता है लेकिन कमबख्त कथावाचक के नसीब में यह सुख कहां
!  फिर भी कथावाचक ने कथा बांचने की ठानी है, देखिए क्या हो पाता है..बात कहां तक बन पाती है।

अभी तो कथावाचक अपनी ही कथा में फंसा है और आत्मालाप की रट लगाए हुए है, वक्त बलवान होता है..देखिए वह किस करवट बैठता है। अभी के लिए बस इतना ही।

7 comments:

Ramakant Singh said...

बेहतरीन कथावाचन

सदा said...

सार्थकता लिये सशक्‍त लेखन ...

virendra sharma said...

रविवार, 7 अक्तूबर 2012
कांग्रेसी कुतर्क
कांग्रेसी कुतर्क

क़ानून मंत्री श्री सलमान खुर्शीद साहब कह रहें हैं .पहले से सब कुछ पता था तो चैनल पे क्यों न दिखाया ?सबको पता होना चाहिए .

तो भाई साहब जो ज्ञात सत्य है उसपे अब हाय तौबा क्यों मची है .

एक और तर्क देखिए कांग्रेसी कह रहें हैं :वाड्रा प्राइवेट आदमी है .मान लिया चलिए .

फिर सारे कांग्रेसी वकील बने प्रवक्ता उसकी तरफदारी क्यों कर रहें हैं ?देखिए वाड्रा ऐसा योजक ,संयोजक तत्व बन गए हैं जिन्होनें पार्टी और सरकार का परस्पर विलय करवा दिया है .अब पार्टी सरकार बन गई है .और सरकार पार्टी .पूछा जाना चाहिए इनमें से माताजी किसकी मुखिया है .पार्टी की ?सरकार की ?

Rajesh Kumari said...

बढ़िया प्रस्तुति कथा वाचन

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

बहुत बढिया, क्या बात

अनुभूति said...

बेहतरीन सार्थक कथावाचन ...

manish sharma said...

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