Friday, October 04, 2019

क्या है अपने लिए सोशल नेटवर्क

इंटरनेट ने जिस तेजी से हमारी ज़िंदगी में पैठ बनाई है, उससे आभास होता है कि हम अभी और इसके भीतर भटकेंगे। वैसे भी जीवन में यदि भटके नहीं तो फिर जीवन ही क्या ! हम सभी बोलचाल की भाषा में तकनीकी शब्दों का बख़ूबी इस्तेमाल करने लगे हैं और यही वजह है कि इंटरनेट की बनाई आभासी दुनिया में हम आराम से घुल-मिल चुके हैं। गाँव-घर   का चौपाल हो या फिर शहर के चौक-चौराहे, अब ये सब भी वर्चुअल होने लगे हैं। मानो 'वर्चुअल वर्ल्ड' ने असल ज़िंदगी पर वर्चस्व क़ायम कर लिया हो। 

वैसे मेरा मानना है कि हमलोगों को  इंटरनेट के प्रयोग करने की आदत जब से पड़ी है, तब से ही मन की दीवारें छोटी पड़ने लगी है और लगता है कि कभी भी यह दीवार टूट सकती है। यह सोचकर अच्छा भी लगता है कि हम सभी विस्तार के लिए पुरानी सीमाओं को तोड़ रहे हैं। 

इस दुनिया में गोता लगाते हुए ऐसा लगता है मानो मैं यहां सदियों से भटक रहा हूं, सारे के सारे चेहरे परिचित नजर आते हैं। जब गाँव से दूर था तब इसीके ज़रिए अपनी अंचल की यादों की पोटली खोला करता था। तब भी मुझे यहाँ अपनी जमीं दिखती थी। सच पूछिए तो शुरुआत  से ही रेडिफ, याहू, हॉट मेल और फिर अब जीमेल-फ़ेसबुक-ट्विटर से यारी कभी महंगी नहीं पड़ी। सब एक दूसरे से जुड़ते चले गए और मेरे 'मैं' का विस्तार होता चला गया। साथ ही साथ घर की बाउंड्री का भी विस्तार होने लगा। 

पहले ऑरकुट और फिर फेसबुक व ट्विटर की मेरे मानस में उपस्थिति भी कुछ-कुछ ऐसी ही है। मेरा मानना है कि इन सबने हम सभी के ' मैं 'का विस्तार किया है। कबीर कहते हैं न- "बिन धरती एक मंडल दीसे/बिन सरोवर जूँ पानी रे/गगन मंडलू में होए उजियाला/बोल गुरु-मुख बानी हो जी…"

इंटरनेट के विभिन्न सोशल नेटवर्किंग चैनल मेरे लिए यही कर रहे हैं। ये सब मेरे लिए कबीर रच रहे हैं, गुलजार बो रहे हैं और तो और, कुछ रेणु के बीज भी बो रहे हैं। ऐसे में मुझे यह दुनिया भी किसानी लगती है और आभासी दुनिया में भी मैं काश्तकार बन जाता हूं, जो मेरा मूल है।  

ऑरकुट के दोस्त फेसबुक के प्लेटफ़ार्म पर कॉमन हो गए तो जिले के पड़ोसी और संबंधी यहां और भी करीबी बन गए। व्हाटसअप की दुनिया हमें चिट्ठी पतरी वाले दिनों  में लेकर चली जाती है। 

इस दुनिया में दोस्तों की आवाजाही लगातार बनी रहती है। यहाँ बेबाक़ होकर हम सब एक दूसरे की आलोचना करते हैं, प्रेम करते हैं, मानो बनारस के किसी घाट पर पंडित छन्नू लाल मिश्रा कह रहे हों- नाचत गावत डमरूधारी, छोड़ै सर्प-गरल पिचकारी/ पीतैं प्रेत-धकोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी….। 

सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर दोस्तों को एकजुट करने में उम्र कभी बाधा नहीं बनी। 70 साल के राधेश्याम वर्मा भी दोस्तों की लिस्ट में शामिल हैं तो 14 साल का नीतिन भी। राधेश्याम जी किताबों पर चर्चा करते हैं तो नीतिन फिल्मों पर बात करता है। हरी बत्ती जलते देख (चैट) सब एक हो जाते हैं। बातचीत औपचारिक से कब आत्मीय हो जाती है पता ही नहीं चलता। 

अक्सर फेसबुक के चौराहे पर कई लोग टकराते हैं। ऐसे अवसरों पर लगता है, मानो यह कोई स्टेज हो, जहां सब हर दिन सज-धज के आते हैं और अपने किरदार को निभाकर निकल जाते हैं, अपने घर की ओर। और मैं, इन सबमें अपना चेहरा खोजने जुट जाता हूं। तभी पर्दे के पीछे से रवींद्र नाथ टैगोर के शब्द गूंजने लगते हैं-  विश्वरुपेर खेलाघरे/ कतई गेलेम खेले/ आपरूप के देखे गेलेम/दुटि नयन मेले../जाबार दिने...

हमने कभी भी इस दुनिया को आभासी नहीं माना, और न ही ख्वाब। हम इसमें भी एक शहर बसाते हैं, एक चौक तैयार करते हैं। ऐसे लोगों से और करीब आते हैं, जिससे मन की बातें थोक के भाव में कर सकें, जिन्हें ड्राइंगरुम में बुलाकर अच्छी चाय पिला सकें.... सब अपने हैं यहां, कोई नहीं है पराया....। आइए, आप भी मेरे गाँव के खेतों की दुनिया की तरह फेसबुक आंगन में दाखिल हो जाइए, कुछ बात करते हैं, कुछ कहानियां गढ़ते हैं, कुछ गीत गाते हैं। बस यह ध्यान रहे, आभासी दुनिया हमारे असल दुनिया पर हावी न हो जाए। 


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