आज बाबूजी का जन्मदिन है। वे होते तो आज 68 साल के रहते। ज़िंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव के बीच उन्हें आज भी रहना चाहिए था, ताकि वे देखते हम सबको...हालांकि यही एक चीज है, जिसके बारे में हम कुछ नहीं कह सकते...
उनका जीवन खेत-पथार के संग किताबों के संग रमता था। वे पढ़ते थे, खूब पढ़ते थे। उनकी एक समृद्ध लाइब्रेरी हुआ करती थी, वे किताब बाँटते थे। उनकी कई आदतों में एक था- किताब बांटना। 17 साल की उम्र में उन्होंने एक निजी पुस्तकालय बनाया, जिसे वे समृद्ध करते रहे। धान, पटुआ, मूंग, गेंहूँ के संग वे दुआर को किताब से भी सजाते रहे।
हमने कभी उन्हें अपना जन्मदिन मनाते नहीं देखा लेकिन जब घर में कई पुरानी किताबों को देखता हूँ तो उस पर किताब खरीदने की तारीख पढ़ता हूँ तो वह 5 अक्टूबर होता है, मतलब जन्मदिन पर वे किताब खरीदते थे।
यह सब लिखते हुए अपने भीतर खुद को टटोलने लगता हूं। आज जब पूर्णिया में किताब की दुकान पर जाना हुआ तो लगा कि बाबूजी ने ही आज यहां भेजा है।
हिंदी की नई नई किताबें बाबूजी पूर्णिया में जिस दुकान से खरीदते थे, वहीं चला गया। लालमुनि काका की दुकान से किताबें खरीदकर और फिर मोटरसाइकिल के कैरियर में बांध कर बाबूजी चनका लौटते थे।
आज लालमुनि काका की दुकान में उनकी प्रिय किताब 'रागदरबारी' दिख गई। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस किताब का 41 वां संस्करण आया है।
हमने सातवीं बार फिर से श्रीलाल शुक्ल जी इस किताब की खरीदारी की। दरअसल छह लोग बारी -बारी से पढ़ने ले गए और फिर लौटकर 'रागदरबारी' घर न आ सका।
बाबूजी, दोपहर में पढ़ते थे। वे जब किताबों में रम जाते तो कुछ नहीं करते। पढ़ते हुए जहां वे रुक जाते, उन पन्नों के बीच धान की बालियां सूखा कर रखते थे, स्मृति के लिए।
बाबूजी का जन्मदिन और किताबों की चर्चा करना इसलिए भी रास आता है क्योंकि वे कहते थे कि आने वाली पीढ़ी को घर में कुछ किताबें भी मिलनी चाहिए। पुस्तकालय से उन्हें लगाव था, संस्थागत हो या फिर निजी, वे पुस्तकालय को पूरा स्नेह देते थे।
अपने जीवन के सबसे कठिन दौर में , जब बीमारी की वजह से वे कम बोलते थे और उठ नहीं सकते थे तब उन्होंने मुझसे कहा था कि लाइब्रेरी की सभी किताबें एक सामुदायिक पुस्तकालय को दे दिया जाए। उन्होंने अपनी खरीदी अधिकांश किताबें मधुबनी जिला स्थित यदुनाथ सार्वजनिक पुस्तकालय को दे दी। उस वक्त मैंने कहा था कि कुछ किताबें घर में रहने दीजिए, मुझे उनका किताब घर चाहिए था। लेकिन उन्होंने साफ मना कर दिया और जो उन्होंने कहा, वह मुझे हमेशा याद रहेगा; उन्होंने कहा था- " किताब खरीदने की आदत डालो, किताब के लिए पैसे खर्च करो, अन्य खर्च पर नियंत्रण कर किताब की दुकान में समय बिताओ..."
आज बाबूजी नहीं हैं लेकिन किताब की दुनिया उनकी जगमग कर रही है। हम सबकी आदत में किताब पढ़ना शामिल है। किताबें हमें भीतर से समृद्ध करती है, किताबें हमें विपरित से विपरित परिस्थितियों में राह दिखाती है।
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