Wednesday, October 02, 2019

'पूर्णिया में गांधी'

पिछले कुछ दिनों से लगातार बारिश हो रही थी। सबकुछ पानी-पानी था। फिर अचानक दो अक्टूबर को धूप उग आती है। सबकुछ सामान्य सा लगने लगता है। जीवन यही है। हम यहां धूप-छांव का ही खेल देखते हैं और इसी खेल में हम न जाने कितने रंगों में अपने भीतर भरम पाल लेते हैं। ऐसे ही वक्त हमें गांधी के मूल्यों की प्रासंगिकता का ख्याल आता है कि यह सुहाना भऱम एक दिन सबका टूट जाएगा और बस रह जाएगा आपका सच। आपका सच ही आपकी छवि तैयार करता है।

घर में बाबूजी की ढेर सारी डायरी है, वे रोज अपनी डायरी लिखते थे, जिसे हाथ लगाने का मौका तब मिला जब वे हमें छोड़कर अनंत यात्रा पर निकल गए। बाबूजी की सभी डायरी के ऊपर गांधी जी की छवि अंकित है, दरअसल ये डायरी ‘बिहार खादी ग्रामोद्योग संघ’ की है, जिसका नाम ही है- ‘सर्वोदय डायरी’। हम इन्हीं डायरी के जरिए गांधी के करीब पहुंचे। बचपन में बापू किताबों के जरिए आते हैं और फिर उम्र बढ़ने के साथ हम उनके और करीब होते चले जाते हैं।
एक अक्टूबर की बात है, पूर्णिया के जिलाधिकारी राहुल कुमार जी से बात होती है और दो अक्टूबर को गांधी जयंती के अवसर पर एक संवाद गोष्ठी के आयोजन की रुपरेखा तैयार होती है।

गांधी शब्द से अपनापा है, ऐसे में शहर के कुछ लोगों का साथ मिलता है और जिला समाहरणालय परिसर में गांधी के मूल्यों की प्रासंगिकता पर बातचीत शुरु होती है। गांधी को समझने की कोशिश करते हुए हमने यह जाना कि महात्मा को सत्य और संवाद में भरोसा था। उनके बहिष्कार में भी एक संवाद था। आज पूर्णिया में गांधीजी की 150 वीं जयंती पर आयोजित इस कार्यक्रम में हमने उसी संवाद को महसूस किया। हमने जिलाधिकारी की सहजता में गांधी का संवाद पर जो भरोसा था, उसे महसूस किया।

कार्यक्रम में तीन वक्ता थे, डॉक्टर निरुपमा राय, विषेख चौहान और चंद्रकांत जी। इन तीनों ने अपने विचार रखे। सुनकर बहुत कुछ सीखने को मिला। लेकिन जिस चीज ने मुझे आकर्षित किया, वह था अधिकारियों के साथ लोगों का सीधा संवाद। पुस्तकालय की बात हुई, किताब पढ़ने की आदत को लेकर बातें हुई, स्वच्छता की बात हुई, यह सभी बातें एक दूसरे के साथ सीधा संवाद के तरीके से हुई, ऐसा नहीं हुआ कि कोई एक बोलता जा रहा है और बांकी लोग बस सुन रहे हैं।

हमने कार्यक्रम में गांधी जी के प्रिय भजनों को बांसुरी के सुर में सुना। गांधी के साथ संगीत का अपना अलग ही महत्व है। निजी तौर पर गांधी जी के बारे में बहुत कुछ जानने का अवसर हमें लेखक रामचंद्र गुहा देते हैं। रामचंद्र गुहा की लेखनी से परिचय के सूत्रधार बनते हैं - सुशांत झा। सुशांत भाई ने रामचंद्र गुहा की किताबों का अनुवाद किया है। गांधी जी के शुरुआती जीवन और राजनीतिक सफ़र पर गुहा ने 'गांधी भारत से पहले' किताब लिखी है और उनकी दूसरी किताब जिसने मुझे गांधी जी के क़रीब पहुंचाने का काम किया वह है - 'भारत गांधी के बाद.'

बचपन से सुनता आया हूं कि गांधी जी बिहार दौरे में पूर्णिया प्रवास भी करते थे। यहां उनके नाम पर दो मुख्य आश्रम हैं, एक टिकापट्टी में और दूसरा रानीपतरा में। आज जब जिला समाहरणालय परिसर में गांधीजी के बारे में बात हो रही थी तो लग रहा था कि गांधी यहीं कहीं आसपास हैं और पंचायती राज पर अपनी बात रख रहे हैं। दरअसल गांधी जी की सादगी हम सबको उनके करीब लाती है। कोई आदमी इतनी ऊंचाई पर पहुंचने के बाद इस तरह की सादगी कैसे बनाए रख सकता है, यह एक बड़ा सवाल है। आज के कार्यक्रम में एक युवा ने जिस सहजता से पुस्तकालय को लेकर सवाल किया और जिलाधिकारी ने जिस सादगी से जवाब दिया, उस पर और लंबी बात होनी चाहिए। जिलाधिकारी ने बड़ी सादगी से कहा कि सबकुछ संघर्ष से हासिल होता है। वे चाहते तो कह सकते थे कि सबकुछ हो जाएगा लेकिन ऐसा उन्होंने नहीं कहा, यही सहजता, सरलता बताती है कि हमें गांधी के और करीब आना चाहिए। राहुल जी ने ठीक ही कहा कि हमें महात्मा गांधी के भीतर की अच्छाइयों के संग उनके चरित्र का सम्यक व निष्पक्ष मूल्यांकन भी करना चाहिए,  तब जाकर ही हम गांधी को लेकर संवाद कर सकते हैं।

एक श्रोता के तौर पर मैं सभा कक्ष में कुछ देर के लिए यह सोचने लगा कि गांधी कितनी सहजता से आज भी हम सभी के भीतर यात्रा कर रहे हैं, भले हम माने या ना माने। बात यह है कि महात्मा ने सादगी कोई दिखाने या नाटक करने के लिए नहीं अपनाई थी, यह उनकी आत्मा से उपजी थी, जब उन्होंने देखा था कि ब्रिटिश हुकूमत में भारत का आम आदमी भूखा और नंगा बना दिया गया है तो उन्होंने अपना कपड़ा खुद बुना और खुद धोया। यही सादगी हमें चंपारण से लेकर देश दुनिया की सैर कराती है और यह भरोसा दिलाती है कि गांधी कभी भी अप्रसांगिक नहीं होंगे।

हमें गांधी को और समझने की जरुरत है, इसके लिए हमें बहुत पढना होगा। जिलाधिकारी और अन्य वक्ताओं ने ठीक ही कहा कि हमें गांधी को समझने के लिए उनके लिखे को पढ़ना होगा। निजी तौर पर यह कार्यक्रम मेरे लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि मैं संवाद को देखना चाहता था, जहां सवाल ज्यादा हो और भाषण कम। दरअअसल हमें 'गांधी' शब्द को इसलिए भी समझना होगा क्योंकि महात्मा ही वह शख़्स थे, जिन्होंने आज़ादी मिलने के दिन जश्न मनाने के बजाय शोक मनाने का फ़ैसला किया था। आज़ादी का नायक कलकत्ता में शोक मना रहा था तो सरहद पार मशहूर शायर फ़ैज़ कह रहे थे -
"ये दाग- दाग उजाला, ये सबगजीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं..."

दरअसल गांधी भरम में नहीं जीते थे, उन्हें यथार्थ से प्रेम था, इसलिए वे जश्न से कोसों दूर शोक मनाते हुए भी संवाद स्थापित कर रहे थे।

5 comments:

Meena Bhardwaj said...

बहुत सुन्दर लेख ।

Shahid kaishar said...

Nice बहुत सुंदर लेखन

sushant jha said...

Great. This is good.

Dinesh Kumar Mishra said...

बहुत सुन्दर प्रस्ततुति

themovingschool/Ishteyaque Alam said...

बापू को समझने की खातिर हमें और क्या करना चाहिए? इस लेख के बाद और स्पष्ट हो गया