हाल ही में गांव में एक लड़के से मुलाकात हुई। उसके हाथ में स्मार्टफ़ोन की श्रेणी का एक महँगा मोबाईल था। वह दिल्ली में खाना बनाने का काम करता है। संतोष नाम के उस लड़के ने बताया कि इस बार उसने 13 हजार रुपये में मोबाईल खरीदा है। हमने पूछा कि घर में शौचालय है? संतोष ने तपाक से कहा - " शौचालय नहीं है। यह काम तो सरकार का है न , हम क्यों बनवाएँ ? " संतोष की बातों से पता चलता है कि हम सरकारी योजनाओं से कितने अनभिज्ञ हैं और वहीं दूसरी ओर दिखावे के पीछे किस तरह भाग रहे हैं और कैसे उन चीजों को अभी भी नकार रहे हैं जिसका संबंध हमारे स्वास्थ्य और स्वच्छता है। लेकिन चकाचौंध ने हमारी आंखों को अपने वश में कर लिया है और जब कोई सवाल करता है तो हम सरकार की तरफ़ ऊँगली उठा देते हैं।
गूगल करते हुए संयुक्त राष्ट्र की एक रपट पढ़ने को मिली, जिसके अनुसार अपने देश में लोग शौचालय से ज्यादा मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं। अब बताइए, जरुरत किस चीज की है और हम किस चीज में लगे पड़े हैं। यह भी सच है कि सरकार शौचालय बनाने के लिए पैसा देती है, लेकिन दुख की बात है कि इस जरूरी चीज के लिए भी हमें जागरूक कोई करता है तो हमारी आंख खुलती है।
अभी भी ग्रामीण समाज शौचालय को लेकर गंभीर नहीं है। सरकारी आंकड़ों पर लंबी बहस हो सकती है लेकिन ग्राउंड जीरो कुछ और कहता है। गांव-देहात में मोबाइल और महंगी बाइक आपको हर जगह मिल जाएंगे लेकिन क्या हर घर में शौचालय दिखते हैं? यह बड़ा सवाल है। युवाओं को इन मुद्दों पर सोचना होगा और पहल करनी होगी।
यह सब लिखते हुए मुझे डॉ बिन्देश्वर पाठक की अनूठी पहल पर बात करने की इच्छा हो रही है। उनकी संस्था सुलभ इंटरनेशनल ने शौचालय के क्षेत्र में बड़ा काम किया है। बिहार से उन्होंने अपना काम आरंभ किया और आज वे दुनिया भर में जाने जाते हैं। देश और विदेश में उनके काम की सराहना की जाती है।
डॉ बिन्देश्वर पाठक ने भी तो चार दशक पहले कदम ही उठाया होगा न! तो फिर हम कदम बढ़ाने से क्यों झिझक रहे हैं। मैला शब्द को हटाने के लिए, हर घर में शौचालय को शामिल करने के लिए और भी लोगों को सामने आना होगा। इन दिनों हम सब स्टार्टअप की बात करते हैं। हर कोई नया करना चाहता है। ऐसे में शौचालय के निर्माण और इसके प्रति लोगों को जागरुक करने के लिए क्यों नहीं कुछ हम भी नया करें। अभी भी गाँव में लोग कहते हैं कि हमारे पास शौचालय बनाने के लिए जगह कहाँ है। जबकि
हमें यह मालूम होना चाहिए कि गङ्ढे वाले शौचालय का निर्माण मात्र एक मीटर व्यास में भी किया जा सकता है। थोड़ी सी जगह मे इस तरह के शौचालय का निर्माण कराया जा सकता है। चूंकि यह जलबंध शौचालय है अत: इससे बदबू भी नहीं आती है। दरअसल हमें स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होना होगा। हम अपने स्तर पर भी यह काम कर सकते हैं। ऋण लेकर हम बाईक या ट्रेकटर ख़रीद सकते हैं तो फिर शौचालय को क्यों न हम प्राथमिकता दें।
सरकारी आँकड़ों के इतर हमें अपने स्तर पर भी यह पता लगाना चाहिए कि कितने लोग अपने घरों में शौचालय बनवा चुके हैं मोबाइल एप बनाने वाली कंपनियों से जुड़े युवाओं को इन विषयों पर सोचना चाहिए कि क्या ऐसा एप तैयार किया जा सकता है कि हम यह पता लगा लें कि सरकारी आंकड़ों में जिन घरों में शौचालय की बनने की पुष्टि है वह सच है यह गलत। इस तरह के प्रयास करने की जरुरत है।
गूगल से ही पता चला कि 'गोटा-गो’ एक ऐसा एप है, जिसे कुणाल सेठ ने 2010 में तैयार किया था। खास बात यह है कि यदि आप घर से बाहर हैं और आपको टॉयलेट यूज करना हो तो यह एप आपको आपकी लोकेशन के आसपास के सभी पब्लिक टॉयलेट्स की जानकारी आपके मोबाइल फोन के स्क्रीन पर उपलब्ध कराएगा वो भी नक्शे के साथ।
गाँव में शौचालय निर्माण को लेकर निजी स्तर पर भी काम करने की जरुरत है। ग्रामीणों को, पंचायत प्रतिनिधियों को स्वास्थ्य और स्वच्छता के बारे में बताने की ज़रूरत है। निर्मल-स्वच्छ गाँव बनाने के लिए सभी को साथ आना होगा, हमें कुछ अलग और नया करना होगा।
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