बाहर तेज बारिश हो रही है। हम किसानी कर रहे लोगों के लिए इस मौसम में यदि तेज और लगातार बारिश हो तो मन की मुराद पूरी होती है, ऐसा गाम-घर में कहा जाता है। धनरोपनी के मौसम में बारिश का अपना अलग ही महत्व है। ठीक ऐसे मौसम में ‘कुली लाइन्स’ नाम की किताब हाथ में आती है। यह किताब बारिश की तरह आई है, बारिश की तेज और बड़ी बूंदों की तरह, जो सबकुछ भींगों देती है लेकिन साथ ही स्मृतियों को एक बार फिर से हरा भरा कर देती है।
यह किताब एक ऐसे चिकित्सक ने लिखी है, जिसकी रुचि ‘लोक’ में है। लेखक हैं डॉक्टर प्रवीण कुमार झा Praveen Jha। इस किताब से गुजरते हुए हम हिन्दुस्तान से दूर कई हिन्दुस्तान हो आते हैं।
यह एक पलायान गाथा है, जो बारिश की तरह भींगों देती है। गिरमिटिया कथाओं से गुजरते हुए हर बार लगा कि ये कथाएं अधूरी हैं लेकिन तभी अहसास होता है कि पलायान अपने आप में एक अधूरी गाथा है, जो कभी पूरी ही हो नहीं सकती।
लेखक ने किताब के शुरुआती अध्याय में रामदीन की कहानी सुनाई है, उसे पढ़ते हुए लगता है कि हमारे पुरखे संघर्ष से मुक्ति की चाह लिए किस तरह गिरमिटिया हो गए। प्रवीण झा लिखते हैं- “पर अब रामदीन के फिजी में अपने खेत हैं, अपनी फसल है। किसी की मजूरी नहीं। पर यह सब यूं ही नहीं हो गया। उन्होंने बहुत कुछ खोया। फिजी की इस मिट्टी में कई राज छुपे हैं, दर्द छुपा है। यह खुशहाल द्वीप ऐसे कई रामदीनों से बना है, जिनके चित्कार समय के साथ दब गए। घाव सूख गए..”
यह किताब इसलिए भी पढ़ी जानी चाहिए क्योंकि इसे पढते हुए आप ऐसे कई शब्दों से गुजरेंगे, जिसके बारे में आपको विस्तार से जानना चाहिए। लेखक ने बड़ी सहजता से गिरमिटिया, जहाजी, जहाजिन जैसे शब्दों के बारे में विस्तार से बताया है। इतिहास में रुचि रखने की वजह से कुली लाइन्स से अपनापा है।
प्रवीण झा ने कहन शैली में इतिहास को बांचा है। वे जिस अंदाज में कथा की शुरुआत करते हैं, वह बहुत ही रोचक है। किताब में एक जगह वे बताते हैं कि किस तरह अवध और रूहेलखंड रेलवे जब मुरादाबाद के लिए शुरु हुई तो गांवों के कहार बेरोजगार हो गए। दरअसल पहले उनकी रोजी रोटी ही पालकी पर सवारी ले जाना था पर अब ट्रेन आ गई। बातचीत के लहजे में वे आहिस्ते -आहिस्ते पाठक के मन में सवार हो जाते हैं, दरअसल यह भी कला है।
18 वीं-19वीं सदी में भारत से लाखों लोगों को बदतर हाल में जिस प्रकार जहाजों में भरकर बाहर ले जाया गया, वह दुनिया के इतिहास का स्याह पक्ष है, जिसे लगभग भुला दिया गया है। ऐसे में दस्तावेजों, चिट्ठी- पतरी और जहाजियों के जीवित पीढ़ियों के लोगों से मिली जानकारी को एक किताब के शक्ल में सामने लाकर लेखक ने एक बड़ा काम किया है।
इस किताब में पीड़ा है, जहाजियों की पीड़ा, जिसे पढ़ते हुए भीतर में चुभन होती है, हम कई बार भावुक हो जाते हैं, यह एक प्रकार संत्रास है, जिसे पाठक को भी भोगना पड़ता है। लेखक ने ईमानदार कोशिश की है, उन कथाओं को सामने लाने में, जिनमें ‘नेपथ्य के अभिनेता’ भरे पड़े हैं।
[ कुली लाइन्स
लेखक- प्रवीण कुमार झा
प्रकाशक- वाणी प्रकाशन
मूल्य- ₹299 】
2 comments:
मैंने भी किताब पढ़ी है और मेरा भी यही अनुभव है
अपने पुरखों के पलायन का इतना महत्वपूर्ण इतिहास कभी हमें पढ़ाया ही नहीं गया ... तब शायद हम विश्व भर में फैले अपने ही भाई - बहनों से बेहतर जुड़े होते ... इस पुस्तक के अंशों को सिलेबस का हिस्सा होना चाहिए ...
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