Thursday, April 11, 2019

गुफ़्तगू रेणु से..

“मैं तो तुम्हारे जन्म से छह साल पहले ही उस ‘लोक’ चला गया था, फिर तुम्हें बार-बार मेरी याद क्यों आती है ? ख़ैर, एक बात बताओ , क्या सचमुच सुराज आ गया है वहां..? विदापत नाच का ठिठर मंडल के घर चुल्हा जलता है कि नहीं..? “

“और एक सवाल तुमसे पूछने का मन है , कब तक रेणु की बात लिखते रहोगे? कितना कुछ बदलाव दिखता है मेरे मैला आँचल में, क्या तुम आज की परती परिकथा बाँच नहीं सकते? कुछ नया तलाश करो अपने अंचल में, जिसकी बोली-बानी सबकुछ अपनी माटी की हो..’

‘तुम जानते हो, कोसी प्रोजेक्ट के नहरों की कथा अधूरी ही रह गई मुझसे। ठीक वैसे ही जयप्रकाश की भी कथा बाँच न सका। वो अररिया ज़िले की बसैठी की कहानी, रानी इंद्रावती की कहानी..कितना कुछ बांकी है और तुम मेरे मुहावरे में फँसे हो...निकलो , बाहर निकलो। सांप को केंचुल उतारते देखो हो? एक चिड़ियाँ होती है नीलकंठ, वह बहुत बारीकी से सांप पर नज़र रखती है।”

“तुम तो औराही ख़ूब जाते हो। सुनता हूँ कि मेरे नाम से कोई बड़ा सा भवन खड़ा कर दिया गया है। ख़ैर, ये सब तो माया है असल है ज़मीनी काम। जानते हो, मैं  आजतक सुरपति राय और डॉक्टर प्रशांत का मुरीद हूँ, जानते हो क्यूँ? दरअसल  दोनों ही ज़मीन पर काम करते थे। फ़ील्ड वर्क का कोई तोड़ नहीं होता। महान विचार से जमीनी बात जरा भी कम नहीं होती। आज तुम जहाँ हो, वहाँ तुम अपने होने को सिद्ध करो। नया कुछ शब्द के ज़रिए दिखाओ, जो तुम्हारे आसपास ही घट रहा है। अच्छा-बुरा जो भी...”

“तुम सोच रहे होगे कि आज यह बूढ़ा भाषण देने के मूड में है लेकिन क्या करूँ, मुझे अपने अंचल की सही तस्वीर देखनी है। तुमने ‘ऋणजल धनजल’ पढ़ा है ? मैं ‘ऋणजल धनजल’ में अलग हूं। मुझे वही चाहिए। “

“ये बताओ ज़रा, अपने अंचल में कौन है जो जनता के बीच जाकर जीवन की त्रासदी और राजकाज की विफलता को, प्रकृति के क्रोध को दुनिया के सामने लाने का प्रयास कर रहा है? “

“एक बात जानते हो, कभी वेणु से पूछना कि नियति क्या होती है। मुझे वेणु बहुत खिंचता है। बहुत कम उम्र में ही मैंने उसके कंधे पर सब भार सौंप दिया था। लेकिन उसने उस भार को स्वीकार किया। आज जब कभी वेणु को तुम्हारे मार्फ़त सुनता हूँ तो लगता है कि मेरा बड़ा बेटा तो कमाल का किस्सागो है! “

“ख़ैर, ये जान लो और मन में बाँध लो कि नियति ने तुम्हें उस जगह घेर दिया है जहाँ सम्पन्नता,विपन्नता,आपदा, उल्लास सब कुछ अथाह है, बस उसे अपनी आँख से देखने का प्रयास करो..”

मैं टकटकी लगाए ‘रेणु’ को देख-सुन रहा था। मैं अपने शबद-योगी को देख रहा था। जिस तरह मैला आंचल में डॉक्टर प्रशांत ममता की ओर देखता है न, ठीक वही हाल मेरा था..यह जागती आँखों का एक सपना था।

{ 11 अप्रैल 1977, रात साढ़े नौ बजे, रेणु उस ‘लोक’ चले गए, जहाँ से आज भी वे सबकुछ देख रहे हैं शायद..}

1 comment:

Saurabh Rastogi said...

लेख पढ़ते पढ़ते वापिस उस दौर में चला गया था जहाँ रेणु, नामवर, गुप्त जी इत्यादि को पढ़ने का मौका मिला था, उस समय कोर्स की किताबों में वह बोर करते थे, आज रस से पूर्ण लगते हैं, पढ़ते हुए लगता ही नहीं की मैं कंक्रीट के जंगलों में, खुद को गांव में, खेत में, आम के अपने बगीचे में पाता हूँ, उस गायघर में खुद को खड़ा पाता हूँ जहाँ से आजतक खुद को अलग ही नहीं कर पाया।
आपका लेख अक्सर कर सुकूनदायक रहा मेरे लिए, नवऊर्जा आ ही जाती है खेत खलिहान को पढ़ के, एक बढ़िया सी मुस्कराहट मिल जाती है साथ में कुछ पुराणी यादें।
वो दिन तो वापिस नहीं आएंगे पर हर बीतते हुए दिन के साथ जुड़ाव बढ़ता जा रहा है मेरा, कभी कभी तो लगता है कहीं वापिस न भाग जाऊँ वही...
देखते हैं...


जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये