Monday, February 25, 2019

" मैं तो निज़ाम से नैना लगा बैठी रे..."

वक्त जब फरवरी से मार्च की तरफ भाग रहा होता है न, तो उस समय पछिया-पूरबा हवा की बातें कुछ और ही होती है। हवा के संग धूल की यारी देखने लायक होती है। यही वह समय होता है जब यादें भी इन हवाओं के संग स्मृति में अचानक लौट आती है। ऐसे लोग जो जीवन की पारी खेलकर लम्बी यात्रा पर निकल गए होते हैं, वे सब एक -एक कर किसी रंगरेज़ की तरह मन के भीतर दाखिल हो जाते हैं।

आलमारी से कपड़े निकालते वक्त अचानक बाबूजी का एक कुर्ता हाथ में आ जाता है। अब उनके गए चार साल हो गए लेकिन हर दिन लगता है कि वे यहीं कहीं हैं। वे चौदह साल की उम्र से किसानी कर रहे थे, खेतों को वे प्रयोगशाला मानते थे। फिर एक दिन वे थक गए और बिछावन पर लेट गए। शायद कर्म करते हुए एक दिन हर कोई ऐसा ही करता है। थक जाना भी तो सत्य ही है न!  दर्शन में 'निज़ाम से नैना मिलाने की बात' कही गयी है। बाबूजी को बिछावन पर लेटे देखकर मुझे अक्सर यही लगता था। उनकी आँखों को देखते हुए लगता था, मानो मुझे वे कह रहे हों- " मैं तो निज़ाम से नैना लगा बैठी रे..."

दिल्ली में कहीं एक फ़क़ीर मिले थे। उन्होंने कहा था कि 'दुख की निंदा मत करिए, उसे स्वीकार करिए'। बाबूजी को जब भी देखता, लगता कि वही फ़क़ीर मुझे सबकुछ दिखा रहे हैं। इस पछिया- पूरबा हवा के झोंके में फ़क़ीर बाबा की एक वाणी याद आ रही है- " एक सूरतिया के दो है मूरतिया.."

यह सब सोचते हुए बरामदे की खिड़की से बाहर देखता हूं। सामने सागवान के बड़े-बड़े पत्ते हवा से गुफ्तगू कर रहे हैं। सभी गाछ-वृक्ष हवा के जोर में चहकते दिख रहे हैं। अहाते में आम के गाछ सब में मंजर आ गए हैं। कचबचिया चिड़ियाँ दिन भर खूब कच-बच कर रही होती है। पोखर में बनमुर्गी खेल रही है। बिजली के खम्बे पे एक नीलकंठ एक जोड़ी पंख फैलाये बैठी है। स्मृति से निकलते ही, प्रकृति और परिवेश में दाखिल होते ही जीवन हवा की झोंके की तरह बहता नजर आने लगता है।

बाहर जहां भी देखता हूं सेमल के सभी पेड़ लाल फूल में डूबे नज़र आते हैं। इस मौसम में सेमल के पेड़ के सारे पत्ते झड़ जाते हैं और गाछ टुहूक लाल रंग के फूलों से भर जाता है। 

सेमल के गाछ को देखकर मैं बाबूजी के और क़रीब चला जाता हूं। जीवन के आख़िरी दिनों में वे मुझे रुई से भी हल्के लगने लगे थे, मानो हवा में उड़कर वे हम सब के भीतर बैठ गए हों। उदय प्रकाश की इन पंक्तियों की तरह-

"मैं सेमल का पेड़ हूं
मुझे ज़ोर-ज़ोर से झकझोरो और
मेरी रुई को हवा की तमाम परतों में
बादलों के छोटे-छोटे टुकड़ों की तरह
उड़ जाने दो...."

कि तभी सूरदास का लिखा मन में गूंजने लगता है-
यह संसार फूल सेमर को ,
सुन्दर देख लुभायो |

चाखन  लाग्यो रुई उड़ गई ,
हाथ कछु नहीं आयो ||

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