साल 2011 की बात है। उस वक्त कानपुर में था और डिजीटल दुनिया में हिन्दी की बातों को लेकर लगातार काम कर रहा था । उन्हीं दिनों आभासी दुनिया में घूमते हुए एक ब्लॉग पर नज़र जाती है- 'आम का पेड़' । यह ब्लॉग तीसरी क्लास में पढ़ाई कर रहे बच्चे का था। अपने बारे में यह बच्चा कहता है- ‘’मैं अमृत हूँ। पुणे में रहता हूँ। डीपीएस में तीसरी कक्षा में पढ़ता हूँ। कंप्यूटर पर हिन्दी में लिखना आसान है और यह सब मैं खुद लिखता हूँ।‘’
2011 से 2019 में दाखिल होता हूँ। कानपुर से पूर्णिया-चनका आ जाता हूँ। पिछले दिनों डाक से एक किताब पहुंचती है, जिसके लेखक का नाम है - अमृत रंजन। वही 'आम का पेड़' वाला अमृत अब डिजीटल दुनिया से किताब की दुनिया में आ गया है।
अमृत की यह किताब कविताओं की दुनिया की सैर कराती है। कविता संग्रह का नाम है- 'जहाँ नहीं गया'. एक बनते हुए कवि की यह किताब अनवरत कोशिश का शानदार उदाहरण है। हम जैसे खेती-बाड़ी करने वाले लोग अनवरत कोशिश का अर्थ सबसे अधिक समझते हैं लेकिन अमृत की कविताओं को पढ़ते हुए अहसास हुआ कि शब्दों की यात्रा में भी अनवरत कोशिश का फल बहुत ही मीठा होता है।
अमृत को पढ़ते हुए लगा कि उसे पता है कि शब्द को किस तरह से गढ़ना है कि पंक्ति- बद्ध शब्द ऑर्गेनिक लगे। यह कला है, जिसमें अमृत बढियां से काम कर रहे हैं। एक-एक शब्द कहाँ से कैसी ध्वनि देगी, मानो उसे यह सब पता हो।
कविता संग्रह की एक कविता जो मुझे सबसे करीब लगी, उसका शीर्षक है- ' काग़ज़ का टुकड़ा' . यह कमाल की कविता है। इसकी हर पँक्ति में जो अहसास है, उसे पढ़ते हुए कभी नहीं लगता है कि 16 साल के किसी किशोर मन ने इसे गढ़ा है लगता है मानो किसी पचास साल के व्यक्ति ने इसे गढ़ा है। अमृत लिखते हैं-
" एक काग़ज़ के टुकड़े का
इस जमाने में
मां से ज्यादा मोल हो गया है।
एक काग़ज़ के टुकड़े से
दुनिया मुट्ठी में आ सकती है। "
संग्रह में प्रकृति और परिवेश के एक से बढ़कर एक बिम्ब हैं। हर कविता में कभी कभी लगता है कि द्वंद है तो कभी कभी लगता है कि कवि द्वंद से मुक्ति के लिए अनवरत कोशिश में लगा है। 'बलि' शीर्षक की कविता में आप उस द्वंद को महसूस कर सकते हैं-
" कितना चुभता है
नल से निकलते
पानी की चीख सुनी है?
मानो हमारे जीवन के लिए
पानी मर रहा है।"
अमृत रंजन को किताब के लिए बधाई। हर बार पन्ने पलटते हुए मुझे तीसरी क्लास का अमृत ही याद आता है। बचपन में उसने एक ब्लॉग पोस्ट में किताबों का जिक्र किया था, आज फिर से उसे पढ़ने का मन कर रहा है। तब अमृत ने बुक शेल्फ की तस्वीर लगाकर लिखा था-
"मेरे पापा ने यह बुक शेल्फ ख़रीदी है। मेरे किताब की जगह बीच वाले खटाल में है। मेरे पास तो बहुत कम किताबें हैंलेकिन मेरे पापा के पास बहुत सारी किताबें हैं। और मेरे दादाजी के पास पूरी चार-पाँच अलमारी भरी हुई है। उन्होंने सारी किताबें पढ़ ली है। मुझे भी वह सारी किताबें पढ़नी है। जब मैं वह पढ़ लूँगा, तब दादाजी मुझे बहुत प्यार करेंगे। फिर जब मैं अपने गाँव से वापस पुणे आ जाऊँगा, तब दादाजी मुझे बहुत याद करेंगे। अभी मैं पुणे में ही हूँ। दादाजी का भी किताबों से भरा घर और यहाँ पुणे में भी ढेर सारी किताबें। यही है मेरा किताब घर।‘’
आज आठ साल बाद उनके पिता के बुक शेल्फ में अमृत की यह किताब बहुत कुछ कहती दिख रही होगी। समय के साथ अमृत और भी निखरेंगे, भरोसा है।
{ कविता संग्रह- जहाँ नहीं गया
लेखक- अमृत रंजन
प्रकाशक- नयी किताब प्रकाशन
मूल्य- ₹125 }
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