Thursday, February 14, 2019

भली लड़कियाँ, बुरी लड़कियाँ

डाक से एक किताब आई, किताब का कवर काले रंग का है और उस पे लाल रंग से किताब का नाम लिखा है- 'भली लड़कियाँ, बुरी लड़कियाँ '

समीक्षक नहीं हूं, पाठक हूं, जो किताबों में अपनी दुनिया तलाशता रहता है। यह पाठक हर किताब में दुनिया खोजता रहता है। यह किताब बिहार के एक छोटे से कस्बे की लड़की पूजा प्रकाश की है जो अपने सपनों को लेकर दिल्ली चली आती है। यह किताब पूजा के ही आसपास घूमती है और हां, इस लड़की के आसपास ही रहती है मेघना, सैम और देबजानी। अलग अलग माटी- पानी की ये लड़कियां जब संग हो जाती हैं तो ही यह किताब तैयार होती है।

अनु सिंह चौधरी की यह नई किताब पढ़ते हुए मन बार -बार विचलित हुआ। इस किताब पर बात शुरू करने से पहले यह स्पष्ट कर दूं कि हालांकि यह किताब लड़कियों की कथा है लेकिन हर पुरुष को यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए। यह किताब सचमुच में मन को बदल देने वाली है। किताब पढ़कर जब घर से बाहर निकला तो लगा मानो किसी ने नहला दुहला कर , बढियां से कंघी कर तैयार कर दिया है, 'लड़के की नजर' को निर्मल कर दिया है।

दरअसल यह किताब बताती है कि हम सब अच्छा होना चाहते हैं, राह दिखाती यह किताब शायद लड़कों के लिए लिखी गई हो लेकिन जो भी हो यह किताब मेरे जैसे के लिए तो साबुन की वह टिकिया है जिसने मन के कोने में पलथी मारकर बैठे मैल को साफ कर दिया है।

यह किताब उस दादी की है जो अपने बहू को नौकरी करते हुए सबल देखना चाहती है। यह किताब उस दादी की है जो उम्र के इस पड़ाव में भी सब भार अपने कंधे पे लेकर पोती को खूब पढाना चाहती है। यह किताब उस अठारह साल की लड़की की है जो अठाहरवीं गिरह को समझती है और जिसे पता है कि उसकी जड़ें कहाँ है। तीन महीने की पोती को अकेले पालती है दादी, क्योंकि बहू की पोस्टिंग कहीं और है और बेटे की कहीं और। पोती मिरांडा हाउस पहुंचती है, होस्टल नहीं पीजी में रहती है। यहीं उसके संग हो जाती है वो तीन लड़कियां-मेघना, सैम और देबजानी।

अठारह की उम्र की लड़की और दिल्ली। इस वाक्य को लेकर हम चाहें जो भी अच्छी-अच्छी बातें कह दें, लिख दें लेकिन इस समाज में लड़कियों को लेकर जो नजर है, वह किसी से छुपी नहीं है। चारों लड़कियों की कहानी साथ चलती है। पीजी चलाने वाली अरोड़ा आंटी की अपनी कहानी है तो वहीं पूजा को झकझोर कर मन और तन से तोड़ देने वाले संदीप की अपनी कहानी है। इस किताब को पढ़ने के बाद लिखने की बार-बार कोशिश की लेकिन हर बार संदीप जैसे सोच ने मन को तार-तार कर दिया। वहीं पूजा प्रकाश और सैम के बारे में जब लिखने की कोशिश की तो मन के भीतर से आवाज आने लगी- 'मन निर्मल करो' !

इस किताब को पढ़ते हुए लगा कि हम जिसे आजादी मानते हैं दरअसल वो सबसे बड़ा दिलफ़रेब भरम है और लेखिका ने ठीक ही कहा है कि सबसे बड़ा फरेब और कुछ नहीं बल्कि प्रेम ही है । किताब जब अपने अंतिम पन्नों में सिमटने जा रही होती है, उस वक्त पूजा का अपनी अम्मा (दादी) से जो संवाद होता है, उसे पढ़ना जरूरी है।

" निर्भीक लड़की क्या करती है, अम्मा? कैसी होती है निर्भीक लड़की?"
" तुम मुझसे एतना जिरह काहे कर रही हो? कोई बात है पूजा?"
"बताओ न अम्मा! निर्भीक लड़की क्या करती है?"
"अपने साथ होने वाले किसी भी गलत काम, किसी भी अन्याय का विरोध करती है। जो गलत लगता है, उसके खिलाफ लड़ती है।"
" अम्मा जो लड़ती है वो बदनाम भी तो होती है।"
"निर्भीक लड़की बदनामी से नहीं डरती है। जो उसको सही लगता है, वही करती है। "

लेखिका ने जब इन संवादों को लिखा होगा तो वो किस संत्रास से गुजरी होगी, इसे पाठक को समझना होगा। यह किताब हम सभी को पढ़नी चाहिए और हर किसी को अपने ढंग से कहानी को समझना होगा।

किताब के तीसरे पन्ने में गुलज़ार की कुछ पंक्तियां है-
" जिसका भी चेहरा छीला, अंदर से और     निकला
मासूम-सा-कबूतर, नाचा तो मोर निकला
कभी हम कमीने निकले, कभी दूसरे कमीने।"

- गुलज़ार ( फ़िल्म कमीने)
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{किताब- भली लड़कियाँ, बुरी लड़कियाँ (उपन्यास)
लेखिका-अनु सिंह चौधरी
प्रकाशक- एका-हिन्द युग्म
मूल्य-₹175 }

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