Wednesday, January 09, 2019

सदन झा की किताब 'हॉफ सेट चाय और कुछ यूँ ही

हम सभी की पीठ पर स्मृतियों की एक गठरी बंधी होती है। हम जहां होते हैं, जिस परिवेश में जीते हैं, वहां स्मृतियों से भरी यह गठरी चुपचाप हमें निहारती रहती है। कई दफे इन स्मृतियों के सहारे हम लंबी यात्रा पर निकल जाते हैं। पेशे से इतिहासकार सदन झा की नई किताब 'हॉफ सेट चाय और कुछ यूं ही' को पढ़ते हुए स्मृति की गठरी और भी समृद्ध हुई है।

'हॉफ सेट चाय और कुछ यूं ही' को पढ़ते हुए अहसास हो रहा है कि यात्रा की जमा पूंजी का ब्याज स्मृति ही है और जिसके पास स्मृति को शब्द देने की कला हो और यदि वह इतिहासकार भी हो तो फिर घाट-बाट सबकी कथा पेंटर के कैनवास की तरह दिखने लगती है, और मन में किसी फिल्म का यह गाना बजने लगता है -
"तू धूप है, छम से बिखर
तू है नदी, ओ बेख़बर
बह चल कहीं, उड़ चल कहीं
दिल खुश जहाँ..
तेरी तो मंज़िल है वहीं .."

सदन झा की इस किताब को पढ़ते हुए दरअसल आप प्रेम के संग देश- परदेश की यात्रा करते हैं। यात्राओं में स्मृति परछाई की तरह दिखती है। किताब की शुरुआती कहानी 'राजधानी' की नायिका निशा के बारे में लेखक कहते हैं- " टेंट में आई पैड पर बहुत हल्के वॉल्यूम में अमजद अली का सरोद बजता रहा। निशा की यह अजीब सी आदत जो ठहरी, जहां जाती उसके ठीक उलट संगीत ले जाती..."
दरअसल स्मृति यही है। लेखक ने शब्दों की सुंदर माला तैयार की है। इस किताब में लंदन से लेकर मिथिला तक की खुशबू है। वर्तमान के संग गुजरे दिनों की वार्ता है।

किताब में ढेर सारी कथा और टिप्पणियां एक शांत नदी की तरह बहती मिलेगी और इसे पढ़ते हुए कभी-कभी आपको लगेगा कि यह एक स्तर पर व्यक्तिगत विवरण है लेकिन जैसे ही आप आगे बढ़ते जाएंगे तो लगेगा कि यह तो हम सभी के लिए है, ठीक नदी की तरह जो हमें सबकुछ देती है, माछ, पानी, पत्थर, माटी सबकुछ।

इस किताब की खासियत छोटी-छोटी टिप्पणियां हैं। छोटी सी टिप्पणी में लेखक बहुत कुछ कह जाते हैं। ' पिता की सार्थकता' में सदन झा पिता और संतान की बातें बड़े ही रोचक अंदाज में करते दिखते हैं। पिता के मन की बात को वे पिता के मन में ही चलने देते हैं और उधर संतान को अपनी राह खुद बनाते देखने लगते हैं। एक पाठक के तौर पर लेखक की यह टिप्पणी मुझे सबसे अधिक खिंचती है।

सदन झा किताब में अपनी कश्मीर यात्रा का जिक्र करते हैं। कश्मीर को उन्होंने शब्द दिया। इसी के आगे वे अमृतसर यात्रा का भी जिक्र करते हैं। इस यात्रा के बारे में वे लिखते हैं- " हम कितना कम रूबरू हुए हैं अपने ही सगों से। गुरुद्वारा, मस्जिद और गिरजे तो मैं कई बार जा चुका लेकिन आजतक नमाज़ कभी अदा नहीं की। क्यों नहीं की, कोई जवाब नहीं। सेक्युलर विरासत के तहत हमने स्कूल के डेस्क शेयर किए। क्लासरूम के बाहर सेवैयाँ खायीं। दूर से दर्द महसूसे लेकिन कहाँ कभी जिंदगी जी एक दूसरे से फेरबदल कर। तुम मैं बन जाते , मैं तुम हो जाते।" सदन झा की इस टिप्पणी में देश बसता है।

दरसअल विस्थापन पर सदन झा का शोध कार्य है। उसे पढ़ते हुए लगा कि हमारी पीढ़ी के लोग जो उदारीकरण के दौर के बाद अपनी समझ को विकसित करने में जुटे हैं उन्हें विभाजन के संत्रास को समझना होगा।

किताब में मुकुल मांगलिक वाला संस्मरण तो बहुत ही मार्मिक है। लन्दन की गलियों से होते हुए कश्मीर की यात्राओं से जब हम आगे निकलते हैं तो दरभंगा बड़े ठाठ से सामने खड़ा मिलता है। दरभंगा के मोहल्ले में सदन झा कथावाचक की दिखते हैं, ठीक वैसे ही जैसे रेणु ने त्रिलोचन को बांचते हुए कबीराहा मठ के महंत जी की तरह साधो-साधो बुदबुदाते हैं।

'डोसा और दरभंगा' नामक संस्मरण में वे कमाल के किस्सागो दिखते हैं। मोहल्ले में ठेले पर डोसा बनाने वाले को उसने जिस तरह शब्द में ढाला है, पढ़ते हुए मन लालची हो जाता है। सचमुच स्मृति लजीज भी होती है और नमकीन भी।

सदन झा ने पुस्तक में अपने गाँव सरिसब के वाचनालय की एक समृद्ध छवि पेश की है। रिपोतार्ज शैली में वे एक सुंदर तस्वीर उकेर देते हैं। वहीं 'स्कूल से वापसी के रास्ते' नामक संस्मरण में दरभंगा के एक किताबघर में होने वाली बौद्धिक बहस की बात करते हैं। आज के माहौल में जब बौद्धिकता और बहसों पर हमले हो रहे हैं , ऐसे में सदन झा के इस संस्मरण को पढ़ा जाना चाहिए।

किताब का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय मुझे 'चौखट से बाहर की भाषा' लगा। यहां एक जगह लेखक कहते हैं- ' भाषा कब धर्म का रूप ले लेती है पता ही नहीं चलता? कब इस धर्म को राज्य और राजनीति स्वरूपित करने लगती है, अहसास ही नहीं होता। कब धर्म और राजनीति की चादर ओढ़े भाषा प्रेम साम्प्रदायिक हो जाता है, भनक ही नहीं लगती..."

एक लेखक जिसकी रुचि इतिहास में है, उसे पढ़ते हुए बार- बार अहसास होता है कि स्मृति की पोटली को खोलने की जरूरत है। अपनी स्मृतियों में हम गाम-शहर-विलायत सबको खंगाले और खुद से गुफ्तगू करने की कोशिश करें। यह किताब उस चिड़ियां की तरह लगती है जो ठंड के मौसम में खाली पड़े खेत की आल पर बार- बार पीछे मुड़कर देखती है, जहां पिछले महीने धान की बालियां सजी थी।

(किताब:  हॉफ सेट चाय और कुछ यूँ ही
लेखक- सदन झा
प्रकाशक- वाणी प्रकाशन
मूल्य- ₹250 )

1 comment:

Rajeev Tyagi said...

बहुत ही रोचक ढंग से सदन झा ने सरल शब्दों में गहरी बाते कह दी है, बधाई।