अनुपम मिश्र कब ज़िंदगी में आए, यह बता नहीं सकता। अपनी किताब ‘ आज भी खरे हैं तालाब’ की तरह वह हमेशा संग हैं। उनसे मुलाक़ात कम होती थी लेकिन जब भी मिलता तो लगता हमेशा इनसे मुलाक़ात होती है। अनुपम मिश्र सबके थे और इसके हिस्से नहीं किये जा सकते।
उनसे पहली मुलाक़ात दिल्ली के आईटीओ के क़रीब हुई थी। पायजमा-कुर्ता और चश्मा , संग में झोला। देखकर लगा मानो सत्य को महसूस कर रहा हूं। वे मुझे गाम के तालाब की तरह लगते थे, जिसमें झाँककर हम अपना चेहरा पहचान सकते थे, एकदम निर्मल। बातचीत में वे पर्यावरण और भाषा के बारे में बताते थे। अनुपम मिश्र कहते थे कि "भाषा मन और माथा दोनों है। "
आधी बाज़ू का कुर्ता पहनने वाला वह शख़्स ‘पूरा और अनुपम आदमी’ था। उनकी भाषा हमारे लिए जीवन का व्याकरण है। वे ऐसे बोलते थे कि कठिन से कठिन भी आसान लगने लगता था। गंभीर से गंभीर विषय को भी वे सहज-सुगम बना देते थे। आज जो मुखौटे हम देखते हैं, ऐसा कोई मुखौटा उनके भीतर नहीं था।
कहीं जब बोलना होता है तो मैं अनुपम मिश्र के बारे में ज़रूर बोलता हूं। वे इस दुनिया में एक लिबास की तरह थे, जिसमें गांधी का भाव था। उनके बारे में बोलकर-लिखकर लगता है जैसे मन का पर्यावरण थोड़ा साफ़ हो गया हो। यही ताक़त है उस आदमी की। ‘हमारा पर्यावरण’ हमें पढ़ना चाहिए। अनुपम मिश्र की इस किताब में देश है।
खेती बाड़ी और गाम घर करते हुए मैं अनुपम मिश्र को अनुभव करता हूं। वे परंपरागत वर्षा के जल के सरंक्षण की पुरज़ोर वकालत करते थे। वे पानी के पहरेदार थे। अनुपम जी के साथ मुलाकातें हमें पानी का संस्कार दे जाती थी।
अनुपम मिश्र सहज स्वभाव के आदमी थे और सहजता ही उनकी प्रकृति थी। जीवन के इस दौर में हम अनुपम मिश्र को हर पल याद रखें , यह ज़रूरी है। इन दिनों जब तालाब, कुंआ जैसे पानी के स्रोत भी गाँव से खत्म रहे हैं, ऐसे वक्त में अनुपम मिश्र हमें सबसे अधिक याद आते हैं। जब विकास के नाम पर सिर्फ विनाश की मूर्खतापूर्ण होड़ लगी है, अनुपम मिश्र का न होना, एक घुप्प अंधेरे की तरह। आज उनकी बरसी है, उनकी कही यह बात आप सब भी पढ़िए-
"इस दुनिया में हम कितने भी बड़े उद्देश्य को लेकर दीया जलाते हैं,तेज़ हवा उसे टिकने नहीं देती। शायद हमारे जीवन के दीये में पानी ही ज़्यादा होता है, तेल नहीं। स्नेह की कमी होगी इसलिए जीवन बाती चिड़चिड़ तिड़तिड़ ज़्यादा करती है, एक सी संयत होकर जल नहीं पाती। न हम अपना अँधेरा दूर कर पाते हैं , न दूसरों का। हम थोड़ा अपने भीतर झांकें तो हममें से ज़्यादातर का जीवन एक तरह से कोल्हू के बैल जैसा बना दिया गया है। हम गोल गोल घूमते रहते हैं आँखों पर पट्टी बांधे| "
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