दैनिक भास्कर अखबार मेंं प्रकाशित-15 मई 2017 |
बचपन से ही किसान और जवान को लेकर केवल और केवल परेशान हो जाने वाली बात सुनता आया हूं। किसान परेशान है , बेहाल है जैसी बातें। बिहार के किसान परिवार में जन्म हुआ तो किसानी के बारे में हर तरह की बात बचपन से ही सुनता रहा हूं। अक्सर गाँव की छवि एक दुखदायी जगह की होती है, जहाँ गरीबी है, भुखमरी है, कीचड़ है और सिर्फ असुविधाएं है। लेकिन आप बताएँ दुःख कहाँ नहीं होता? दुख तो जीवन का हिस्सा है। शहर की गाँव के प्रति जो इस तरह की मानसिकता है, इसे बदलने की ज़रूरत है।
दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद पाँच साल पत्रकारिता की नौकरी करने के बाद किसानी करने गाँव लौट आया। यह सब अचानक नहीं हुआ। दरअसल खेती और गाँव को लेकर हम सबका ख़्याल एकदम अलग रहा है, लोगबाग़ किसानी को पेशा मानने के लिए तैयार ही नहीं होते हैं, जबकि मेरे लिए यही पेशा ख़ुशी का खजाना है। ऐसे में गाँव को जीने हम लौट आए चनका। दिल्ली और कानपुर में रहते हुए हमने गाँव के बारे में बहुत कुछ सोचा। नौकरी करते हुए ऐसे कई लोगों से मुलाक़ात हुई जिनके भीतर गाँव छुपा था। गाँव के प्रति लोगों का आकर्षण हमने देखा है। इसी जुड़ाव ने मुझे अपने गाँव पहुँचा दिया। चनका एक गाँव है। यह बिहार के पूर्णिया ज़िले में स्थित है।
बाबूजी बीमार थे और उन्हें मेरी ज़रूरत थी। मैं किसान बनना चाहता था और ऐसे में बाबूजी मेरे लिए सबसे बड़े सहायक थे। सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने की वजह से मैंने पहले अपने गाँव की बातें फ़ेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग पर डालने की शुरुआत की। इस दौरान गाँव की बातें, गाँव की तस्वीरें, लोकगीत आदि को आभासी दुनिया में पहुँचाने लगा। यह सब करते हुए गाँव कब मेरे मन में बैठ गया पता भी नहीं चला। कोशिश बस यही रही कि जो दिख रहा है, उसे लोगों तक पहुँचाया जाए। गाँव में ख़ुशी भी है, इसे एक फ़्रेम में दिखाने की ज़रूरत है।
पढ़ाई के दौरान ही गाँव खिंचता रहता था। छुट्टी में जब भी गाँव लौटता तो वहाँ की कहानियाँ ख़ूब सुनता था। बचपन में से ही ख़ूब कहानियाँ सुनता था। ऐसे में जब गाँव लौटा तो खेती-बाड़ी करते हुए यहाँ की कहानियाँ जुटाने में लग गया। मुझे बचपन से ही लिखने का शौक रहा है और गाँव आपको कई रोचक कहानियां देता है। यूँ कह लीजिये कि एक लेखक के लिए गाँव में ढेर सारा रॉ मटेरियल उपलब्ध होता है। ऊपर से गाँव का होते हुए भी मुझे गाँव में रहने का मौका ही नहीं मिला। शायद यही वो कारण था जिसकी वजह से गाँव हमेशा मुझे अपनी ओर खींचता था।
किसानी को पेशे के तौर पर पेश करते हुए हमने खेत में प्रयोग करने की ठानी। पारम्परिक खेती करते हुए आप खेत में क्या नया कर सकते हैं, इसके लिए मैंने मिट्टी को अपनी सहेली बना लिया। कदंब के पौधों से हमने दोस्ती की और उसे खेत में सज़ा दिया। यह सच है कि जीवन में पैसे का बहुत महत्व है लेकिन हमें यह तय करना होता है कि जीने के लिए कितना पैसा चाहिए। हमने एक लकीड़ खींची कि मुझे इतना ही पैसा चाहिए और जुट गया खेत में। ख़ुशी की तलाश बहुत लोग करते हैं लेकिन यह सच है कि ख़ुशी तो हमारे भीतर ही है। तकनीकी भाषा में जिसे 'इनबिल्ट' कहते हैं वही बात ख़ुशी के संग है और हम यह सब नहीं जानते हुए बस नेगेटिव हो जाते हैं जबकि ख़ुशी तो बिखरी हुई है हमारे भीतर। खेत में जब वक़्त बिताने लगा तो ख़ुशियाँ भी आने लगी।
गाँव मुझे अपने आप से जोड़ता है और इन्टरनेट बाहर की दुनिया से। ये इन दोनों का मेल ही है जो मेरे जीवन को इतना मजेदार बनाए हुए है। अब तो चार साल हो गए खेती -बाड़ी और क़लम-स्याही करते हुए। इन चार साल में बहुत कुछ नया सीखने को मिल रहा है। गाँव में अब लोगों की आवाजाही बढ़ने लगी है।
हमने अपने गाँव में कला, संस्कृति, साहित्य में रूचि रखने वालों लिए चनका रेसीडेंसी की शुरुआत की है। यहाँ अब लोग आने लगे हैं। इससे गाँव वालों को रोज़गार भी मिल रहा है। मैं चाहता था कि शहर के लोग गाँव को करीब से जाने। विदेशो में न जाकर गाँव में आकर अपनी छुट्टी मनाये। यहाँ रहे, यहाँ का खाना खाए, यहाँ का लोकसंगीत सुनें। अब खेत-खलिहान म्यूज़ियम बनाने की योजना है। इस म्यूज़ियम में हम गाँव के उन समानों को इकट्ठा करेंगे जिसका पहले किसानी काम में प्रयोग हुआ करता था, मसलन- लकड़ी का हल, बैलगाड़ी, मसाला पिसने वाला पत्थर, आदिवासी समाज के उपकरण, संगीत के साज, पेंटिंग आदि। इन सामानों को डिस्पले करने के लिए हॉल बनाने की योजना है।
मेरा हमेशा से मानना रहा है कि आप गाँव के लिए क्या कर सकते हैं। इस सवाल ने मुझे कभी परेशान नहीं किया बल्कि राह दिखाने का ही काम किया। हमने गाँव वालों से नज़दीकी बढ़ाई। उनकी परेशानियों को समझने की कोशिश की और उन्हें इस बात का भरोसा दिलाया कि हमें नेगेटिव नहीं होना है बल्कि परेशानियों के बीच पोज़ेटिव होना होगा।
सब्ज़ी और फूल के प्रति लोगों का जुड़ाव बढ़े इसके लिए हमने लोगों से कहा कि हमें पहले अपने लिए उपजाना होगा। दरअसल बजार के चक्कर में हमारा अपना डाईनिंग टेबल ख़ाली रह जाता है। तो पहले हम ख़ुद के लिए उपजाएँ। ओर्गेनिक खेती के नाम पर हम भले ही ख़ूब आगे बढ़ जाएँ लेकिन वह ओर्गेनिक़ सब्ज़ी अपने बच्चे को खिला रहे हैं या नहीं इस पर भी विचार होना चाहिए। यदि किसान नेगेटिव नहीं होगा तो यक़ीन मानिए समाज भी नेगेटिव नहीं होगा। इसके लिए किसानी पेशे से इतर के लोगों को खेत तक पहुँचना होगा।
किसानी जीवन जीते हुए सोशल मीडिया से हमने दूरी नहीं बनाई है। इस टूल ने मुझे दूर दूर के लोगों तक पहुँचाने का काम किया है। अब तो देश से बाहर के लोग भी चनका आने लगे हैं। कभी सड़क, बिजली का रोना रोने वाले हमारे ग्रामीण अब गाँव में अपने हिस्से की ख़ुशी तलाशते मिल जाते हैं। यह सब देखकर ख़ुशी मिलती है। बच्चों के लिए जब फ़िल्म फ़ेस्टिवल आयोजित करता हूं तो वक़्त जो ख़ुशी मिलती है उसे शब्द में बयां नहीं कर सकता। यह सब करते हुए दिल्ली की ज़िंदगी कुछ भी नहीं लगती है। वहीं जब धान की खेती की शुरुआत में 'धनरोपनी उत्सव' करता हूं तो लगता है कि अपनी माटी के लिए कुछ कर रहा हूं। छोटे-छोटे स्तर पर हमेशा कुछ न कुछ इवेंट करता रहता हूं, इससे मन को शक्ति मिलती है।
अब जब गाँव की बातें ख़ूब करने लगा हूं तो लोगबाग़ सवाल भी पूछने लगे हैं। विदेश से लोग आते हैं, विदेश में चनका की बातें होती है, तो लगता है कि अब गाँव के लिए और कुछ नया करना होगा। आस पड़ोस के ग्रामीणों से भी अब गुफ़्तगू होती है। लोगों को कहता हूं कि गाँव के प्रति हमें नज़रिया बदलना होगा और यदि संभव हो तो खेती का पेशा अपनाना चाहिए। दरअसल गाँव में हम मिलकर बहुत कुछ कर सकते हैं। किसानी करते हुए सुख मिल रहा है। लिखने-पढ़ने का ख़ूब मौक़ा मिलता है। गाँव में सुविधा कम है लेकिन प्रकृति इतना कुछ यहाँ देती है कि उन सुविधाओं की तरफ़ मन भागता ही नहीं है।
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