खेती-बाड़ी करते हुए कई तरह के अनुभव मिल रहे हैं। सच कहिए तो दो साल पहले तक डरपोक किस्म का किसान था। पहले यह सोचकर ही डर जाता था कि बिन मौसम बारिश, आंधी-तूफान या फिर कम बारिश के कारण खेती प्रभावित होगी । डर एक बिमारी की तरह मन में बैठने लगा था लेकिन जैसे जैसे वक्त बित रहा है और फसल के संग वक्त ज्यादा देने लगा हूं, डर भी भागने लगा है। सबकुछ प्रकृति पर छोड़ने की आदत ही मुझे डर से दूर भगा रही है।
अब खेत के साथ खूब प्रयोग करने लगा हूं। दोस्त -यार गांव पहुंचकर हिम्मत बढ़ाते रहते हैं। कई लोग दूर-दराज से अब चनका आने लगे हैं। लोगबाग बाजार के लिए खेती करने का सुझाव देते हैं लेकिन मैं अभी अपने लिए उपजाता हूं। घर को जैविक तरीके से उगाई फसल मिले, इस पर जोर है। यह सब करते हुए खूब आनंद मिल रहा है। बारिश होती है, फसल को नुकसान होता है लेकिन इन सबके बावजूद इतना तो हासिल हो ही जाता है, जिससे घर की थाली भर जाए।
मौसम की सब्जी उगाने लगा हूं। फल के साथ फूल-पौधों से दोस्ती बढ़ा ली है। चनका रेसीडेंसी में जब मेहमान नहीं होते हैं तब मैं इन्हीं फूल-पत्ती और सब्जियों के पौधों से गूफ्तगू करता हूं। यह सब करते हुए खुद के अकेलेपन से भी लड़ता हूं।
अभी परवल का पौधा हर दो दिन में खाने के लिए सब्जी देने लगा है। ऐसा लगता है मानो परिवार में कोई नया सदस्य आया हो और वह चाहता है कि लोग उससे बात करें। ऐसे में दोपहर बाद परवल और भिंडी के पौधों के पास जाता हूं और उसे निहारने लगता हूं। यह बस करते हुए मन के भीतर भी हरी पत्तियां उगने लगी है। शहर के भागमभाग के बीच इन फूल पत्तियों की दुनिया बहुत कुछ नया सीखाती है, हर रोज।
उधर, मक्का अब खेत से खलिहान पहुंचने लगा है। कदंब के खेतों में मक्का अब उपजने लगा है। जबकि पहले लिखता था- 'मक्का के खेत में कदंब'। चार साल में कुछ शब्द भी बदले हैं हमने :)
हालांकि बारिश और आंधी ने इस बार भी फसल को प्रभावित किया है। कभी कभी सोचता हूं तो लगता है कि किसानी के पेशे के बारे मेंं हम सब सतही जानकारी क्यों रखते हैं जबकि हम सबका मूल गाम-घर से है। किसानी कर रहे लोगों के बीच जाकर कभी देखिए, उनका मन किस कदर कई चीजों में उलझा रहता है लेकिन इन सबके बावजूद वे अपने पेशे को उत्सव से जोड़ते रहते हैं। हर फसल की कटाई के बाद उत्सव, हर फसल की बुआई के वक्त उत्सव। पता नहीं और किस पेशे में उत्सव का इतना महत्व होता होगा। गाम में अभी से ही भगैत के लिए लोगबाग मन बनाने लगे हैं। मक्का बिका नहीं है अभी लेकिन उत्सव के लिए हम तैयारी में जुट गए हैं।
इन सबके बीच हमने आज अमरुद के कुछ नए पौधे लगाए हैं। परिसर को फलदार और फूल से भरने की कोशिश है। माटी साथ दे रही है। बरसात गिरते ही कदंब के भी नए पौधे लगाने हैं। बेली के फूल इस मौसम में मन को मोहने के लिए आतुर हैं। कल बारिश हुई तो बेली और भी सुंदर दिखने लगी है। देसी गुलाब खूब लगा रहा हूं- लाल और सफेद। फूल की वजह से तितलियां खूब आती है।
यही सब इन दिनों कर रहा हूं। मौसम की मार का डर अब दूर होने लगा है, किसानी करते हुए जीना सीख रहा हूं। लोगबाग आते हैं तो उनसे भी बहुत कुछ नया सीखने को मिल रहा है।
अब खेत के साथ खूब प्रयोग करने लगा हूं। दोस्त -यार गांव पहुंचकर हिम्मत बढ़ाते रहते हैं। कई लोग दूर-दराज से अब चनका आने लगे हैं। लोगबाग बाजार के लिए खेती करने का सुझाव देते हैं लेकिन मैं अभी अपने लिए उपजाता हूं। घर को जैविक तरीके से उगाई फसल मिले, इस पर जोर है। यह सब करते हुए खूब आनंद मिल रहा है। बारिश होती है, फसल को नुकसान होता है लेकिन इन सबके बावजूद इतना तो हासिल हो ही जाता है, जिससे घर की थाली भर जाए।
मौसम की सब्जी उगाने लगा हूं। फल के साथ फूल-पौधों से दोस्ती बढ़ा ली है। चनका रेसीडेंसी में जब मेहमान नहीं होते हैं तब मैं इन्हीं फूल-पत्ती और सब्जियों के पौधों से गूफ्तगू करता हूं। यह सब करते हुए खुद के अकेलेपन से भी लड़ता हूं।
अभी परवल का पौधा हर दो दिन में खाने के लिए सब्जी देने लगा है। ऐसा लगता है मानो परिवार में कोई नया सदस्य आया हो और वह चाहता है कि लोग उससे बात करें। ऐसे में दोपहर बाद परवल और भिंडी के पौधों के पास जाता हूं और उसे निहारने लगता हूं। यह बस करते हुए मन के भीतर भी हरी पत्तियां उगने लगी है। शहर के भागमभाग के बीच इन फूल पत्तियों की दुनिया बहुत कुछ नया सीखाती है, हर रोज।
उधर, मक्का अब खेत से खलिहान पहुंचने लगा है। कदंब के खेतों में मक्का अब उपजने लगा है। जबकि पहले लिखता था- 'मक्का के खेत में कदंब'। चार साल में कुछ शब्द भी बदले हैं हमने :)
हालांकि बारिश और आंधी ने इस बार भी फसल को प्रभावित किया है। कभी कभी सोचता हूं तो लगता है कि किसानी के पेशे के बारे मेंं हम सब सतही जानकारी क्यों रखते हैं जबकि हम सबका मूल गाम-घर से है। किसानी कर रहे लोगों के बीच जाकर कभी देखिए, उनका मन किस कदर कई चीजों में उलझा रहता है लेकिन इन सबके बावजूद वे अपने पेशे को उत्सव से जोड़ते रहते हैं। हर फसल की कटाई के बाद उत्सव, हर फसल की बुआई के वक्त उत्सव। पता नहीं और किस पेशे में उत्सव का इतना महत्व होता होगा। गाम में अभी से ही भगैत के लिए लोगबाग मन बनाने लगे हैं। मक्का बिका नहीं है अभी लेकिन उत्सव के लिए हम तैयारी में जुट गए हैं।
इन सबके बीच हमने आज अमरुद के कुछ नए पौधे लगाए हैं। परिसर को फलदार और फूल से भरने की कोशिश है। माटी साथ दे रही है। बरसात गिरते ही कदंब के भी नए पौधे लगाने हैं। बेली के फूल इस मौसम में मन को मोहने के लिए आतुर हैं। कल बारिश हुई तो बेली और भी सुंदर दिखने लगी है। देसी गुलाब खूब लगा रहा हूं- लाल और सफेद। फूल की वजह से तितलियां खूब आती है।
यही सब इन दिनों कर रहा हूं। मौसम की मार का डर अब दूर होने लगा है, किसानी करते हुए जीना सीख रहा हूं। लोगबाग आते हैं तो उनसे भी बहुत कुछ नया सीखने को मिल रहा है।
2 comments:
Hello Sir ,
How much land is required to grow vegetables that is enough for a family of 4 people ?
Thanks
Subuhi
Sir ,
Once i grew chilli plant in a pot . It blossomed well and 6 chillies came . I want to grow vegetables but I do not have land . Once i will get some land ..may be 5 ft X 5ft i will grow vegetables .
Thanks
Shweta
Post a Comment