Tuesday, January 03, 2017

ग्रीटिंग कार्ड का गुज़रा ज़माना

देखिए फिर एक नया साल आ गया और हम-आप इसके साथ कदम ताल करने लगे। शायद यही है जिंदगी, जहां हम उम्मीद वाली धूप में चहकने की ख्वाहिश पाले रखते हैं। उम्मीद पर ही दुनिया क़ायम है। हम सब बेहतर कल की उम्मीद करते हैं। नए साल में हम सब इन्हीं उम्मीदों को लेकर संदेशों का आदान-प्रदान करते हैं। सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लेटफार्मों के ज़रिए उम्मीद भरी शुभकामनाएँ हम सब भेजते रहे लेकिन  इस बीच ग्रिटिंग्स कार्ड को समेटे लिफाफे कहीं खो गए। याद कीजिए पुराने दिनों को जब नए साल में हम डाकिए का इंतजार किया करते थे। लाल-पीले-गुलाबी लिफाफों में डाक टिकट चिपकाए जब वह आता तो दूर बैठे लोगों की याद ताजा हो जाती थी। हम स्कूल दिनों में हॉस्टल से घर भेजा करते थे ग्रिटिंग्स कार्ड। उसकी अपनी भाषा हुआ करती थी। 'हैप्पी न्यू ईयर' कहने का अंदाज हुआ करता था। अब कागज के पन्नों में अपनी भावनाओं को रंगों में समेट कर दोस्तों-परिजनों को भेजा करते थे।

हमारे-आपके घर में आज भी ऐसी कई ग्रिटिंग्स होगी, जिसे हमने नववर्ष पर प्राप्त किया था। यदि कोई कार्ड आपके पास आज भी सुरक्षित है तो याद कीजिए उन पुरानी यादों को, उन अनुभवों को शायद आगे चल ये बातें फोटो एलबम की तरह हो जाएगी। उस वक्त आप कहेंगे कि फ़लां वर्ष में मेरे एक दोस्त ने मुझे यह कार्ड भेजा था।

यह सच है कि इलेक्ट्रॉनिक युग में ईमेल- मोबाइल- फ़ेसबुक-व्हाटसएप्प एक सुविधाजनक साधन बनकर सामने आई है, लेकिन इस बीच कागज के पन्नों पर उकेरे शुभकामना संदेशों को भी भूलना ठीक नहीं है। इस बार जब पहली जनवरी की सुबह आपने किसी को शुभकामना संदेश भेजा था तो वह पलक झपकते ही आपके मित्र तक पहुँच गई होगी, लेकिन डाक से कार्ड भेजने के लिए आप कम से कम पाँच दिन पहले उस मित्र- भाई-बहन-या अन्य रिश्तेदारों को याद करते थे।

कागज,चिट्‍ठी,लिफाफा,पोस्‍टकार्ड, नव वर्ष की मंगलकामना वाले खत और उनपर सुंदर लिखावट से उकेरे गए मोती जैसे शब्‍द। जब पाती लिखी जाती तो जतन से सहेजी भी जाती। कहीं पानी से भींग ना जाए। रोशनाई तैयार की जाती, पहले करची कलम के नोक पैने किए जाते, फिर गोटी वाली स्याही को गरम पानी में भिंगोया जाता। जब कार्ड लिख लिया जाता तो किताब के पन्‍नों के बीच संभालकर रख लेते जब तलक वह लिफाफा लाल रंग के सरकारी डब्‍बे में ना गुम होता।

इन सबके बावजूद सोशल नेटवर्क पर नए साल के मौक़े पर जो कुछ लिखा गया उसे भी नज़रंदाज नहीं किया जा सकता है। एक से बढ़कर एक फ़ेसबुक स्टेटस और ट्वीट किए जाते हैं। मुझे फेसबुक के स्टेटस उम्मीद वाली धूप ही लगती है और इसी बीच सुशील भाई का एक पुराना स्टेटस याद आ जाता है-  “ साल बदले तो बदले, ईमान न बदले।“

यह सब लिखते हुए अपने प्रिय फणीश्वर नाथ रेणु के पात्र भिम्मल मामा याद आने लगते हैं, जिसे बार-बार दौरा पड़ता है लेकिन इसके बावजूद उसका ईमान नहीं डोलता है। वहीं बावनदास याद आते हैं, जिसने दो ही डग में इंसानियत को नाप लिया था।

खैर, आइये हम सभी 2017 में उम्मीदों के धूप सेकते हैं, मन के खाली डिब्बे को भरते हैं लेकिन  साथ ही ईमान को भी बचाए रखना है। सोशल मीडिया युग में मुखौटा लगाए हम सबको रेणु का लिखा याद रखना होगा - नए साल में 'मुखौटा' उतारकर ताजा हवा फेफड़ों में भरें ... 

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