साल के आख़िरी दिन में अपनी लीची बाड़ी में कुछ बुज़ुर्ग लोगों से बातचीत में लगा हूं। रामनरेश चाचा कह रहे हैं - " ई मोदी -मोदी करते हुए नोटबंदी का गाना कब चालू हो गया, कुछ पता ही नहीं चला, ख़ैर, अभी तो पम्पसेट चलाना है बाबू, मक्का में पटवन की ज़रूरत है। " सरकार के इस फ़ैसले की बात नए साल में भी जारी रहेगी। लेकिन इन सबके बावजूद हम किसानी कर रहे लोग खेतों में जुटे हैं , एक नई आशा और उत्साह के साथ।
इस वक्त फसल को पानी की जरूरत है , ऐसे में किसानी समाज खेतों की प्यास मिटाने में लगा है। 2016 के अंतिम दिन हम फसल के संग उम्मीद लिए खेतों में घूम रहे हैं। फट-फट करता पम्प सेट आज मुझे खींच रहा है। यदि शास्त्रीय संगीत की बारीकियों की जानकारी होती तो यक़ीन मानिए इसमें भी कोई राग खोज लेता।
जिन खेतों में मक्का है वह आज पटवन से खुश है और उसकी ख़ुशी से ही मेरे जैसा किसान अपने घर-आँगन-दुआर को खुश करेगा। यह सब लिखते हुए गाँव के लच्छो चाचा की बात याद आ रही है। पटवन के वक़्त वे अचानक सरकार के ख़िलाफ़ हो गए। हमने कहा कि चाचा पहले खेत में पानी छोड़ा जाए फिर हम मोदी के ख़िलाफ़ आपकी चर्चा में शामिल होंगे। इस पर चाचा ने कहा , " प्रधानमंत्री सिंचाई योजना के बारे में पता है न तुमको! इस योजना का लड्डू चखा है कि नहीं ? "
लच्छो चाचा की बातें इस बात की तरफ़ इशारा करती है कि इस साल गाँव में भी लोगबाग सरकारी योजनाओं को लेकर खुलकर बात कर रहे हैं।
वैसे 2016 किसानी कर रहे मेरे जैसे लोगों के लिए ख़ास रहा, नोटबंदी को छोड़कर। धान की पैदावार इस बार अच्छी हुई, लेकिन नोटबंदी के कारण धान की बिक्री प्रभावित हुई।
वैसे किसानी के पेशे में हमें हमेशा आशावान बने रहना होता है। हम सब तो बस खेत में बीज देकर चुप हो जाते हैं और सबकुछ कथा के नायक प्रकृति के भरोसे छोड़ देते हैं । इन सबके बीच धरती मैय्या हमें भरोसा देती रहती है कि 'सब अच्छा ही होगा' । इसी आशा के संग हर किसान 12 महीने गुजार देता है। सब अपने गुल्लक में आशा की किरण को बनाये रखने की कोशिश तो जरूर ही करता है।
यही वजह है कि आने वाले 2017 को लेकर हम सब आशावान है। देखिये न अभी एक महीने पहले की ही बात है, धान उपजाकर कोई भगैत-विदापत में डूबा है तो कोई बेटी की विदागरी में लगा है। हालांकि नोटबंदी के कारण धान की बिक्री ने इस बार हमें निराश किया लेकिन इसके बावजूद सब रमे हैं अपनी दुनिया में। गाम-घर की दुनिया यही है, यहां तनख्वाह तो नहीं है लेकिन उत्सव जरूर है। पल में ख़ुशी और पल में सन्तुष्ट हो जाना किसान की आदत है। पूर्णिया जिला में किसानी कर रहे लोग अक्सर कहते हैं - "खेती नै करब त खायब कि और खेती स निराश भ जायब त जियब केना..."
बाबूजी हमेशा कहते थे "जब फसल तुम्हें निराश कर दे तब उससे बात करो। खेत में टहलने लग जाओ। आशा बलवती होती है, इसे दुहराने लगो।"
बाबूजी की कही बातों को याद करते हुए आज डायरी लिखने जब बैठा हूँ तो लगता है सब सुंदर ही होगा। 2017 कल आ रहा है, नये साल में नए फसलों के संग हम खूब बातें करेंगे। नवान्न की पूजा करेंगे। मक्के के दानों को सहेजेंगे, धान की बालियों से प्रेम करेंगे , गेहूं की भूरे रंग की ब्रश की माफिक बाली को माटी से स्पर्श करते देखेंगे।
आशा है मुल्क के अलग अलग हिस्सों में मेहनतकश किसानी कर रहे लोग निराश नहीं होंगे। उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम हर कोने के किसान खेत से इश्क करेंगे...माटी से सोना उपजाने की कोशिश करेंगे... हिम्मत नहीं हारेंगे, एकजुट होंगे।
(किसान की डायरी-31 दिसंबर 2016)
इस वक्त फसल को पानी की जरूरत है , ऐसे में किसानी समाज खेतों की प्यास मिटाने में लगा है। 2016 के अंतिम दिन हम फसल के संग उम्मीद लिए खेतों में घूम रहे हैं। फट-फट करता पम्प सेट आज मुझे खींच रहा है। यदि शास्त्रीय संगीत की बारीकियों की जानकारी होती तो यक़ीन मानिए इसमें भी कोई राग खोज लेता।
जिन खेतों में मक्का है वह आज पटवन से खुश है और उसकी ख़ुशी से ही मेरे जैसा किसान अपने घर-आँगन-दुआर को खुश करेगा। यह सब लिखते हुए गाँव के लच्छो चाचा की बात याद आ रही है। पटवन के वक़्त वे अचानक सरकार के ख़िलाफ़ हो गए। हमने कहा कि चाचा पहले खेत में पानी छोड़ा जाए फिर हम मोदी के ख़िलाफ़ आपकी चर्चा में शामिल होंगे। इस पर चाचा ने कहा , " प्रधानमंत्री सिंचाई योजना के बारे में पता है न तुमको! इस योजना का लड्डू चखा है कि नहीं ? "
लच्छो चाचा की बातें इस बात की तरफ़ इशारा करती है कि इस साल गाँव में भी लोगबाग सरकारी योजनाओं को लेकर खुलकर बात कर रहे हैं।
वैसे 2016 किसानी कर रहे मेरे जैसे लोगों के लिए ख़ास रहा, नोटबंदी को छोड़कर। धान की पैदावार इस बार अच्छी हुई, लेकिन नोटबंदी के कारण धान की बिक्री प्रभावित हुई।
वैसे किसानी के पेशे में हमें हमेशा आशावान बने रहना होता है। हम सब तो बस खेत में बीज देकर चुप हो जाते हैं और सबकुछ कथा के नायक प्रकृति के भरोसे छोड़ देते हैं । इन सबके बीच धरती मैय्या हमें भरोसा देती रहती है कि 'सब अच्छा ही होगा' । इसी आशा के संग हर किसान 12 महीने गुजार देता है। सब अपने गुल्लक में आशा की किरण को बनाये रखने की कोशिश तो जरूर ही करता है।
यही वजह है कि आने वाले 2017 को लेकर हम सब आशावान है। देखिये न अभी एक महीने पहले की ही बात है, धान उपजाकर कोई भगैत-विदापत में डूबा है तो कोई बेटी की विदागरी में लगा है। हालांकि नोटबंदी के कारण धान की बिक्री ने इस बार हमें निराश किया लेकिन इसके बावजूद सब रमे हैं अपनी दुनिया में। गाम-घर की दुनिया यही है, यहां तनख्वाह तो नहीं है लेकिन उत्सव जरूर है। पल में ख़ुशी और पल में सन्तुष्ट हो जाना किसान की आदत है। पूर्णिया जिला में किसानी कर रहे लोग अक्सर कहते हैं - "खेती नै करब त खायब कि और खेती स निराश भ जायब त जियब केना..."
बाबूजी हमेशा कहते थे "जब फसल तुम्हें निराश कर दे तब उससे बात करो। खेत में टहलने लग जाओ। आशा बलवती होती है, इसे दुहराने लगो।"
बाबूजी की कही बातों को याद करते हुए आज डायरी लिखने जब बैठा हूँ तो लगता है सब सुंदर ही होगा। 2017 कल आ रहा है, नये साल में नए फसलों के संग हम खूब बातें करेंगे। नवान्न की पूजा करेंगे। मक्के के दानों को सहेजेंगे, धान की बालियों से प्रेम करेंगे , गेहूं की भूरे रंग की ब्रश की माफिक बाली को माटी से स्पर्श करते देखेंगे।
आशा है मुल्क के अलग अलग हिस्सों में मेहनतकश किसानी कर रहे लोग निराश नहीं होंगे। उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम हर कोने के किसान खेत से इश्क करेंगे...माटी से सोना उपजाने की कोशिश करेंगे... हिम्मत नहीं हारेंगे, एकजुट होंगे।
(किसान की डायरी-31 दिसंबर 2016)
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