बहुत धूप है। अक्टूबर में इतनी तेज़ धूप! विश्वास नहीं होता। सुखदेव कहता है - ' दो-तीन बरख पहले तक दुर्गा पूजा के वक़्त हल्की ठंड आ जाती थी। आलू के बीज बो दिए जाते थे लेकिन इस बार, हे भगवान! ई धूप खेत पथार को जलाकर रख देगा, उस पर हथिया नक्षत्र। बरखा भी ख़ूब हुई है। अभी तो बांकी ही है बरखा। मौसम का पहिया बदल गया है बाबू। तुमने देखा ही कहाँ है उस मौसम को..."
मैं आज सुखदेव को लगातार सुनने बैठा हूं। स्टील की ग्लास में चाय लिए सुखदेव कहता है- " चाह जो है न बाबू, ऊ स्टील के गिलास में ही पीने की चीज़ है। हमको कप में चाह सुरका नै जाता है। कप का हेंडल पकड़ते ही अजीब अजीब होने लगता है। लगता है मानो किसी का कान पकड़ लिए हैं:) वैसे आपको पता है कि पहले पुरेनिया के डाक्टर बाबू भट्टाचार्यजी मरीज के पूरजा पे लिख देते थे- भोर और साँझ चाह पीना है, कम्पलसरी! अब तो बाल बच्चा सब चाह पिबे नै करता है।आपको पता नै होगा। आपके बाबूजी होते तो बताते। "
मैं सुखदेव से धूप और फ़सल पर बात करना चाहता था लेकिन आज वह चाय पर बात करने के मूड में है। 80 साल के इस वृद्घ के पास अंचल की ढेर सारी कहानियाँ है। उसने गाम घर और बाजार को बदलते देखा है। उसके पास चिड़ियों की कहानी है। मौसम बदलते ही नेपाल से कौन चिड़ियाँ आएगी, किस रंग की, चिड़ियों की बोली। सब उसे पता है। लेकिन बात करते हुए विषयांतर होना कोई उससे सीखे :)
सुखदेव की बातों में रस है। जब गाँव में पहली बार मक्का की खेती शुरू हुई थी, जब पहली बार हाईब्रिड गेहूँ की बाली आई थी और जब पहली दफे नहर में पानी छोड़ा गया था..ये सब एक किस्सागो की तरह उसकी ज़ुबान पे है। नहर की खुदाई में उसने हाथ बँटाया था।
सुखदेव बताता है- " कोसी प्रोजेक्ट का अफ़सर सब गाम आया। उससे पहले पुरेनिया से सिंचाई डपार्टमेंट का लोग सब आया। ज़मीन लिया गया तो पहले मालिक सबको सरकारी रेट पर ज़मीन का मुआवज़ा मिला और इसके बाद हमरा सब का बारी आया और मुसहरी टोल का टोटल लोग सरकारी मज़दूर बनकर नहर के लिए मिट्टी निकालने लगे। आज ई धूप में भी ऊ दिन याद करते हैं न तो देह सिहर जाता है। गर्व होता है, हमने गाम के खेतों तक पानी पहुँचाने के लिए नहर बनाया है। इस गाम में भी कोसी का पानी हमने ला दिया। जिस दिन बीरपुर बाँध से ई नहर के लिए पानी छोड़ा गया, उस दिन जानते हैं क्या हुआ? धुर्र, आपको क्या पता होगा, आप तो तब आए भी न थे ई दुनिया में। बाबू, ऊ दिन कामत पर बड़का भोज हुआ और साँझ में बिदापत नाच। ख़ुद ड्योढ़ी के राजकुमार साब अपने बड़का कार से आए थे बिदापत नाच देखने। आह! ई पुरनका गप्प सब यादकर न मन हरियर हो जाता है..कोई पूछता भी नहीं है। "
सुखदेव बातचीत के दौरान नहर की तरह बहने लगा। वह हाट की बात बताने लगा लेकिन विषयांतर होते हुए दुर्गा पूजा के मेले में चला गया। चालीस साल पहले की बात, मेले में थिएटर और कुश्ती कहानी! उसने बताया कि तब मेले में बंगाल की थिएटर कम्पनी आती थी। धान बेचकर जो पैसा आता, वह सब मेला में लोग ख़र्च करते थे।
सुखदेव ने माथे पे गमछा लपेटते हुए कहा- " गमछा तो हम मेला में दो जोड़ी ख़रीदते ही थे। बंगाल के मालदा ज़िला वाला गमछा। लाल रंग का। अब ऊ गमछा नै आता है। तब इतना पैसा का दिखावा नहीं था। पूरा गाम तब एक था। उस टाइम इतना जात-पात नै था। पढ़ा लिखा लोग सब कहते हैं कि पहले जात-पात ज़्यादा था लेकिन ई बात ग़लत है जबसे पोलिटिक्स बढ़ा हैं न बाबू, तब से जात-पात भी बढ़ा है। बाभन टोल का यज्ञ वाला कुँआ तब सबका था। बुच्चन मुसहर हो या फिर सलीम का बाप, सब वहीं से पानी लाते थे और जगदेव पंडित तो काली मंदिर के लिए अच्छिन- जल यहीं से ले जाता था। अब होता है, बताइए आप? अब तो जात को लेकर सब गोलबंद हो गया है बाबू। "
बातचीत के दौरान सुखदेव ने अचानक आसमान की तरफ देखा और कहा- " रे मैया! सूरज तो दो सिर पसचिम चला गया। तीन बज गया होगा। जाते हैं, महिष को चराने ले जाना है। कल भोर में आएँगे और फिर चाह पीते हुए कहानी सुनाएँगे। काहे कि आप मेरा गप्प ख़ूब मन से सुनते हैं..."
सुखदेव निकल पड़ा और मैं एकटक उस 80 साल के नौजवान को देखता रहा। अभी भी वही चपलता, सिर उठाकर चलना, बिना लाठी के सहारे और स्मृति में पुरानी बातों का खजाना...
मैं आज सुखदेव को लगातार सुनने बैठा हूं। स्टील की ग्लास में चाय लिए सुखदेव कहता है- " चाह जो है न बाबू, ऊ स्टील के गिलास में ही पीने की चीज़ है। हमको कप में चाह सुरका नै जाता है। कप का हेंडल पकड़ते ही अजीब अजीब होने लगता है। लगता है मानो किसी का कान पकड़ लिए हैं:) वैसे आपको पता है कि पहले पुरेनिया के डाक्टर बाबू भट्टाचार्यजी मरीज के पूरजा पे लिख देते थे- भोर और साँझ चाह पीना है, कम्पलसरी! अब तो बाल बच्चा सब चाह पिबे नै करता है।आपको पता नै होगा। आपके बाबूजी होते तो बताते। "
मैं सुखदेव से धूप और फ़सल पर बात करना चाहता था लेकिन आज वह चाय पर बात करने के मूड में है। 80 साल के इस वृद्घ के पास अंचल की ढेर सारी कहानियाँ है। उसने गाम घर और बाजार को बदलते देखा है। उसके पास चिड़ियों की कहानी है। मौसम बदलते ही नेपाल से कौन चिड़ियाँ आएगी, किस रंग की, चिड़ियों की बोली। सब उसे पता है। लेकिन बात करते हुए विषयांतर होना कोई उससे सीखे :)
सुखदेव की बातों में रस है। जब गाँव में पहली बार मक्का की खेती शुरू हुई थी, जब पहली बार हाईब्रिड गेहूँ की बाली आई थी और जब पहली दफे नहर में पानी छोड़ा गया था..ये सब एक किस्सागो की तरह उसकी ज़ुबान पे है। नहर की खुदाई में उसने हाथ बँटाया था।
सुखदेव बताता है- " कोसी प्रोजेक्ट का अफ़सर सब गाम आया। उससे पहले पुरेनिया से सिंचाई डपार्टमेंट का लोग सब आया। ज़मीन लिया गया तो पहले मालिक सबको सरकारी रेट पर ज़मीन का मुआवज़ा मिला और इसके बाद हमरा सब का बारी आया और मुसहरी टोल का टोटल लोग सरकारी मज़दूर बनकर नहर के लिए मिट्टी निकालने लगे। आज ई धूप में भी ऊ दिन याद करते हैं न तो देह सिहर जाता है। गर्व होता है, हमने गाम के खेतों तक पानी पहुँचाने के लिए नहर बनाया है। इस गाम में भी कोसी का पानी हमने ला दिया। जिस दिन बीरपुर बाँध से ई नहर के लिए पानी छोड़ा गया, उस दिन जानते हैं क्या हुआ? धुर्र, आपको क्या पता होगा, आप तो तब आए भी न थे ई दुनिया में। बाबू, ऊ दिन कामत पर बड़का भोज हुआ और साँझ में बिदापत नाच। ख़ुद ड्योढ़ी के राजकुमार साब अपने बड़का कार से आए थे बिदापत नाच देखने। आह! ई पुरनका गप्प सब यादकर न मन हरियर हो जाता है..कोई पूछता भी नहीं है। "
सुखदेव बातचीत के दौरान नहर की तरह बहने लगा। वह हाट की बात बताने लगा लेकिन विषयांतर होते हुए दुर्गा पूजा के मेले में चला गया। चालीस साल पहले की बात, मेले में थिएटर और कुश्ती कहानी! उसने बताया कि तब मेले में बंगाल की थिएटर कम्पनी आती थी। धान बेचकर जो पैसा आता, वह सब मेला में लोग ख़र्च करते थे।
सुखदेव ने माथे पे गमछा लपेटते हुए कहा- " गमछा तो हम मेला में दो जोड़ी ख़रीदते ही थे। बंगाल के मालदा ज़िला वाला गमछा। लाल रंग का। अब ऊ गमछा नै आता है। तब इतना पैसा का दिखावा नहीं था। पूरा गाम तब एक था। उस टाइम इतना जात-पात नै था। पढ़ा लिखा लोग सब कहते हैं कि पहले जात-पात ज़्यादा था लेकिन ई बात ग़लत है जबसे पोलिटिक्स बढ़ा हैं न बाबू, तब से जात-पात भी बढ़ा है। बाभन टोल का यज्ञ वाला कुँआ तब सबका था। बुच्चन मुसहर हो या फिर सलीम का बाप, सब वहीं से पानी लाते थे और जगदेव पंडित तो काली मंदिर के लिए अच्छिन- जल यहीं से ले जाता था। अब होता है, बताइए आप? अब तो जात को लेकर सब गोलबंद हो गया है बाबू। "
बातचीत के दौरान सुखदेव ने अचानक आसमान की तरफ देखा और कहा- " रे मैया! सूरज तो दो सिर पसचिम चला गया। तीन बज गया होगा। जाते हैं, महिष को चराने ले जाना है। कल भोर में आएँगे और फिर चाह पीते हुए कहानी सुनाएँगे। काहे कि आप मेरा गप्प ख़ूब मन से सुनते हैं..."
सुखदेव निकल पड़ा और मैं एकटक उस 80 साल के नौजवान को देखता रहा। अभी भी वही चपलता, सिर उठाकर चलना, बिना लाठी के सहारे और स्मृति में पुरानी बातों का खजाना...
2 comments:
अच्छा प्रयास। आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा। कृपया यह भी पढ़ें: http://hindivandana.com/fast-life-waste-time/
बहुत अच्छा लिखते हैं मित्र आप । 🌼🌼
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