बारिश का मौसम है। अक्सर समय पर बारिश होती नहीं है और हम जैसे किसानी कर रहे लोग डीज़ल फूँककर खेत को धनरोपनी के लायक बनाते हैं, ख़ूब कादो -कीचड़ करते हैं और फिर नन्हें-नन्हें धान के पौधों को पंक्ति में लगाकर धरती मैया का शृंगार कर डालते हैं। दरअसल धान को हम बेटी मानते हैं, धान की बालियाँ हमारे घर -दुआर को रौशन करती है, वो हमें प्यार देती है, बिना किसी आशा के ...
आज पूर्णिया से चनका आते वक़्त धान के खेतों के बारे में ही सोच रहा था। सड़क के दोनों तरफ़ धनरोपनी हो रही थी। हम भी अपने धार वाले इलाक़े में धनरोपनी करा रहे हैं। मौसम साथ दे रहा है, इन दिनों जमकर बारिश हो रही। बरखा इस बार धरती मैया की प्यास बुझा देगी, एक किसान के तौर पर हम तो यही आशा करते हैं, हर साल।
बाबूजी की पहली बरसी आ रही है। पिछले साल ईद के दिन वे हम सबको अकेले छोड़ चले गए, अनंत यात्रा पर। वक़्त बड़ी तेज़ी से गुज़र जाता है, पता भी नहीं चलता है। उनकी पहली बरसी हम सब भाई-बहन गाँव में कर रहे हैं। उन्होंने चौदह साल की उम्र से किसानी शुरू की, खेतों को वे प्रयोगशाला मानते थे। फिर एक दिन वे थक गए और बिछावन पर लेट गए। शायद कर्म करते हुए एक दिन हर कोई ऐसा ही करता है। थक जाना भी तो सत्य ही है न! दर्शन में 'निज़ाम से नैना मिलाने की बात' कही गयी है। बाबूजी को बिछावन पर लेटे देखकर मुझे अक्सर यही लगता था। उनकी आँखों को देखते हुए लगता था, मानो मुझे वे कह रहे हों- " मैं तो निज़ाम से नैना लगा बैठी रे..."
मुझे याद है, कॉलेज के दिनों में निज़ामुद्दीन के दरगाह के पास एक फ़क़ीर मिले थे। उन्होंने कहा था कि दुख की निंदा मत करिए, उसे स्वीकार करिए। बाबूजी को जब भी देखता, लगता कि वही फ़क़ीर मुझे सबकुछ दिखा रहे हैं। इस बारिश में फ़क़ीर बाबा की एक वाणी याद आ रही है- " एक सूरतिया के दो है मूरतिया.."
आज जब ख़ूब बारिश हो रही है और हम खेत से रोपनी कराने के बाद दुआर लौटे हैं तो पता नहीं इतना कुछ क्यों याद आ रहा है। कभी लगता है बाबूजी ऊपर से मुझे बता रहे हैं मन को भिंगने दो, खेत की तरह ताकि मन के भीतर जो कुछ है वह विचार के रूप में अंकुरित हो जाए। ठीक वैसे ही जैसे बीज फ़सल बनकर हमारे बख़ारी को गुलज़ार करता है।
यह सब सोचते हुए बरामदे की खिड़की से बाहर देखता हूं। सामने सागवान के बड़े बड़े पत्ते पानी में नहाकर और भी हरे दिखने लगे हैं। सभी गाछ-वृक्ष इस बारिश में चहकते दिख रहे हैं। अहाते में जहाँ पानी लगा है वहाँ कचबचिया चिड़ियाँ डुबकी लगा रही है। पीछे के खेत में बनमुर्गी खेल रही है। आम के पेड़ पर एक नीलकंठ पंख फैलाये बैठी है।
आज इस बारिश में मन के सारे तार खुलते जा रहे हैं। बारिश अभी थमी है, हवा चल रही है, पत्ते भिंगकर और भी सुंदर लगने लगे हैं। सेमल के पेड़ को देखकर मैं बाबूजी के और क़रीब चला जाता हूं। जीवन के आख़िरी दिनों में वे मुझे रुई से भी हल्के लगने लगे थे, मानो हवा में उड़कर वे हम सब के भीतर बैठ गए हों। उदय प्रकाश की इन पंक्तियों की तरह-
"मैं सेमल का पेड़ हूं
मुझे ज़ोर-ज़ोर से झकझोरो और
मेरी रुई को हवा की तमाम परतों में
बादलों के छोटे-छोटे टुकड़ों की तरह
उड़ जाने दो...."
आज पूर्णिया से चनका आते वक़्त धान के खेतों के बारे में ही सोच रहा था। सड़क के दोनों तरफ़ धनरोपनी हो रही थी। हम भी अपने धार वाले इलाक़े में धनरोपनी करा रहे हैं। मौसम साथ दे रहा है, इन दिनों जमकर बारिश हो रही। बरखा इस बार धरती मैया की प्यास बुझा देगी, एक किसान के तौर पर हम तो यही आशा करते हैं, हर साल।
बाबूजी की पहली बरसी आ रही है। पिछले साल ईद के दिन वे हम सबको अकेले छोड़ चले गए, अनंत यात्रा पर। वक़्त बड़ी तेज़ी से गुज़र जाता है, पता भी नहीं चलता है। उनकी पहली बरसी हम सब भाई-बहन गाँव में कर रहे हैं। उन्होंने चौदह साल की उम्र से किसानी शुरू की, खेतों को वे प्रयोगशाला मानते थे। फिर एक दिन वे थक गए और बिछावन पर लेट गए। शायद कर्म करते हुए एक दिन हर कोई ऐसा ही करता है। थक जाना भी तो सत्य ही है न! दर्शन में 'निज़ाम से नैना मिलाने की बात' कही गयी है। बाबूजी को बिछावन पर लेटे देखकर मुझे अक्सर यही लगता था। उनकी आँखों को देखते हुए लगता था, मानो मुझे वे कह रहे हों- " मैं तो निज़ाम से नैना लगा बैठी रे..."
मुझे याद है, कॉलेज के दिनों में निज़ामुद्दीन के दरगाह के पास एक फ़क़ीर मिले थे। उन्होंने कहा था कि दुख की निंदा मत करिए, उसे स्वीकार करिए। बाबूजी को जब भी देखता, लगता कि वही फ़क़ीर मुझे सबकुछ दिखा रहे हैं। इस बारिश में फ़क़ीर बाबा की एक वाणी याद आ रही है- " एक सूरतिया के दो है मूरतिया.."
आज जब ख़ूब बारिश हो रही है और हम खेत से रोपनी कराने के बाद दुआर लौटे हैं तो पता नहीं इतना कुछ क्यों याद आ रहा है। कभी लगता है बाबूजी ऊपर से मुझे बता रहे हैं मन को भिंगने दो, खेत की तरह ताकि मन के भीतर जो कुछ है वह विचार के रूप में अंकुरित हो जाए। ठीक वैसे ही जैसे बीज फ़सल बनकर हमारे बख़ारी को गुलज़ार करता है।
यह सब सोचते हुए बरामदे की खिड़की से बाहर देखता हूं। सामने सागवान के बड़े बड़े पत्ते पानी में नहाकर और भी हरे दिखने लगे हैं। सभी गाछ-वृक्ष इस बारिश में चहकते दिख रहे हैं। अहाते में जहाँ पानी लगा है वहाँ कचबचिया चिड़ियाँ डुबकी लगा रही है। पीछे के खेत में बनमुर्गी खेल रही है। आम के पेड़ पर एक नीलकंठ पंख फैलाये बैठी है।
आज इस बारिश में मन के सारे तार खुलते जा रहे हैं। बारिश अभी थमी है, हवा चल रही है, पत्ते भिंगकर और भी सुंदर लगने लगे हैं। सेमल के पेड़ को देखकर मैं बाबूजी के और क़रीब चला जाता हूं। जीवन के आख़िरी दिनों में वे मुझे रुई से भी हल्के लगने लगे थे, मानो हवा में उड़कर वे हम सब के भीतर बैठ गए हों। उदय प्रकाश की इन पंक्तियों की तरह-
"मैं सेमल का पेड़ हूं
मुझे ज़ोर-ज़ोर से झकझोरो और
मेरी रुई को हवा की तमाम परतों में
बादलों के छोटे-छोटे टुकड़ों की तरह
उड़ जाने दो...."
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