हमारी स्मृति में रामनवमी गांव की कहानियों से भरी हुई है। कल देर रात किशनगंज से लौटकर सुबह-सुबह गाँव पहुँचा तो हर टोले में पताका लहराते लोग मिले। सलीम चाचा ने अपनी बांसबाड़ी से महादलित टोले के लिए बारह बाँस दिए हैं ताकि वे सब भी अपने देवस्थान पर नया पताका लहरा सकें। यही सब देखकर लगता है कि गाँव अभी भी 'धर्म की ड्रामेबाज़ राजनीति और बयानबाज़ी व अफ़वाहों के बाज़ार' से दूर है।
बचपन की यादों वाली पोटली खोलता हूं तो याद आता है गांव में रामनवमी से पहले बाजार का सारा हिसाब किताब चुकता किया जाता था। दुकानदार वो चाहे हिंदू हो य मुस्लिम, वे बही खाते का रजिस्टर नया तैयार करते थे और पुराने का सारा हिसाब- किताब बराबर करने की कोशिश करते थे। बाबूजी की भी कॉपी बदल जाती थी। लाल और हरे इंक से नई कॉपी में बही -खाते की शुरूआत होती थी।
आज हम भले ही कंप्यूटर बिलिंग के दौर में जी रहे हैं लेकिन गांव घरों में आज भी छोटे और बड़े दुकानदार लाल रंग का बही खाता रखते हैं और रामनवमी के दिन पुराने रजिस्टर को एक तरफ रखकर नए रजिस्टर में हिसाब किताब शुरु कर देते हैं।झूठ क्यों कहूँ, मैंने भी आज रजिस्टर के बदले फ़ोन के 'नोट्स' में हिसाब-किताब लिखकर उसे 'सेव' कर दिया लेकिन रामनवमी से पहले बाबूजी का गुलाबबाग़ से थोकभाव में रजिस्टर मंगवाना अब भी मन में है। उनकी लिखी डायरी पढ़ता हूं तो रोमांचित हो जाता हूं।
ख़ैर, बचपन की यादों में डुबकी लगाने पर मेरे सामने कुतुबुद्दीन चाचा का चेहरा दौड़ने लगता है। गांव में उनकी छोटी से एक परचुन दुकान थी, जिसमें जरुरत के सभी सामान मिलते थे। साल भर गांव वाले उनसे सामान लेते थे। कोई नकद तो कोई उधार। उधार लेने वालों का नाम एक लाल रंग के रजिस्टर में कुतुबुद्दीन चाचा दर्ज कर लेते थे। मुझे याद है कि वे रामनवमी से पहले उधार लेने वाले घरों में पहुंचने लगते थे और विनम्रता से कहते थे कि रामनवमी से पहले कर्ज चुकता कर दें ताकि नए रजिस्टर में उनका नाम दर्ज न हो।
कुतुबुद्दीन चाचा की बातों को याद करते हुए लगता है कि रामनवमी के बारे में हम कितना कुछ लोगों को सुना सकते हैं। खासकर उन लोगों को जो धर्म को चश्मे की नजर से हमें दिखलाने की कोशिश करते हैं। धार्मिक सौहार्द का इससे बढ़कर और क्या उदाहरण हो सकता है। जहां तक मुझे याद है कि व्यापारी वर्ग लाल रंग का एक कार्ड भी घरों तक पहुंचाया करते थे, जिसमें जहां रामनवमी की शुभकामना से संबंधित बातें लिखी होती थी वहीं बही-खाते के निपटारे की बात उसी शालिनता से लिखी रहती थी। यह कार्ड मुस्लिम दुकानदार भी छपवाते थे।
गांव-घर की स्मृति सबसे हरी होती है। दूब की तरह, जिस पर हर सुबह ओस की बूंद अपनी जगह बनाए रखती है। रामनवमी की स्मृति दूब की तरह ही निर्मल है। वहीं रामवनवी की शोभा यात्रा का आनंद भी मन में कुलांचे मार रहा है। गांव से शहर की दूरी हम जल्दी से पाटना चाहते थे ताकि शहर की शोभायात्रा का आनंद उठा सकें। मेला घूम सकें...ग़ुब्बारे ले सकें....
बचपन की यादों वाली पोटली खोलता हूं तो याद आता है गांव में रामनवमी से पहले बाजार का सारा हिसाब किताब चुकता किया जाता था। दुकानदार वो चाहे हिंदू हो य मुस्लिम, वे बही खाते का रजिस्टर नया तैयार करते थे और पुराने का सारा हिसाब- किताब बराबर करने की कोशिश करते थे। बाबूजी की भी कॉपी बदल जाती थी। लाल और हरे इंक से नई कॉपी में बही -खाते की शुरूआत होती थी।
आज हम भले ही कंप्यूटर बिलिंग के दौर में जी रहे हैं लेकिन गांव घरों में आज भी छोटे और बड़े दुकानदार लाल रंग का बही खाता रखते हैं और रामनवमी के दिन पुराने रजिस्टर को एक तरफ रखकर नए रजिस्टर में हिसाब किताब शुरु कर देते हैं।झूठ क्यों कहूँ, मैंने भी आज रजिस्टर के बदले फ़ोन के 'नोट्स' में हिसाब-किताब लिखकर उसे 'सेव' कर दिया लेकिन रामनवमी से पहले बाबूजी का गुलाबबाग़ से थोकभाव में रजिस्टर मंगवाना अब भी मन में है। उनकी लिखी डायरी पढ़ता हूं तो रोमांचित हो जाता हूं।
ख़ैर, बचपन की यादों में डुबकी लगाने पर मेरे सामने कुतुबुद्दीन चाचा का चेहरा दौड़ने लगता है। गांव में उनकी छोटी से एक परचुन दुकान थी, जिसमें जरुरत के सभी सामान मिलते थे। साल भर गांव वाले उनसे सामान लेते थे। कोई नकद तो कोई उधार। उधार लेने वालों का नाम एक लाल रंग के रजिस्टर में कुतुबुद्दीन चाचा दर्ज कर लेते थे। मुझे याद है कि वे रामनवमी से पहले उधार लेने वाले घरों में पहुंचने लगते थे और विनम्रता से कहते थे कि रामनवमी से पहले कर्ज चुकता कर दें ताकि नए रजिस्टर में उनका नाम दर्ज न हो।
कुतुबुद्दीन चाचा की बातों को याद करते हुए लगता है कि रामनवमी के बारे में हम कितना कुछ लोगों को सुना सकते हैं। खासकर उन लोगों को जो धर्म को चश्मे की नजर से हमें दिखलाने की कोशिश करते हैं। धार्मिक सौहार्द का इससे बढ़कर और क्या उदाहरण हो सकता है। जहां तक मुझे याद है कि व्यापारी वर्ग लाल रंग का एक कार्ड भी घरों तक पहुंचाया करते थे, जिसमें जहां रामनवमी की शुभकामना से संबंधित बातें लिखी होती थी वहीं बही-खाते के निपटारे की बात उसी शालिनता से लिखी रहती थी। यह कार्ड मुस्लिम दुकानदार भी छपवाते थे।
गांव-घर की स्मृति सबसे हरी होती है। दूब की तरह, जिस पर हर सुबह ओस की बूंद अपनी जगह बनाए रखती है। रामनवमी की स्मृति दूब की तरह ही निर्मल है। वहीं रामवनवी की शोभा यात्रा का आनंद भी मन में कुलांचे मार रहा है। गांव से शहर की दूरी हम जल्दी से पाटना चाहते थे ताकि शहर की शोभायात्रा का आनंद उठा सकें। मेला घूम सकें...ग़ुब्बारे ले सकें....
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