सुबह -सुबह गाँव आता हूँ और खेत में पटवन चालू कर देता हूँ। पिछले ढाई साल से पम्प सेट की आवाज संगीत की तरह लगने लगी है। 2015 अलविदा करने के मूड में आ गया है और हम हैं कि उसे कह रहे हैं -"अभी न जाओ छोड़ के कि दिल अभी भरा नहीं ..."
खैर, इस वक्त फसल को पानी की जरूरत है , ऐसे में किसानी समाज खेतों की प्यास मिटाने में लगा है। 2015 के अंतिम दिन हम फसल के संग उम्मीद लिए खेतों में घूम रहे हैं। फट-फट करता पम्प सेट आज मुझे खींच रहा है। जिन खेतों में मक्का है वह आज खुश है और उसकी ख़ुशी से ही मेरे जैसा किसान अपने घर-आँगन-दुआर को खुश करेगा।
वैसे 2015 किसानी कर रहे मेरे जैसे लोगों के लिए ख़ास नहीं रहा। कम बारिश और आंधी तूफ़ान ने हमें तोड़ कर रख दिया लेकिन हम मन से कम ही टूटते हैं। क्योंकि टूट जाने पर हमारे पास बचता कुछ नहीं है। वैसे भी 12 महीने हमारे लिए कहानी ही है, जिसे हर किसान अपने अंदाज से बयां करता है या कहिये किसानी के जरिये लिख देता है।
आलू की कहानी, मक्का-धान-गेहूं की कहानी या फिर सरसों-दाल-गेहूं की कथा। हम सब तो बस खेत में बीज देकर चुप हो जाते हैं और सबकुछ कथा के नायक प्रकृति के भरोसे छोड़ देते हैं । इन सबके बीच धरती मैय्या हमें भरोसा देती रहती है कि 'सब अच्छा ही होगा' । इसी आशा के संग हर किसान 12 महीने गुजार देता है। सब अपने गुल्लक में आशा की किरण को बनाये रखने की कोशिश तो जरूर ही करता है।
यही वजह है कि आने वाले 2016 को लेकर हम सब आशावान है। देखिये न अभी एक महीने पहले की ही बात है, धान उपजाकर कोई भगैत-विदापत में डूबा है तो कोई बेटी की विदागरी में लगा है। हालांकि धान ने इस बार हमें निराश किया कम बरखा की वजह से लेकिन इसके बावजूद सब रमे हैं अपनी दुनिया में। गाम-घर की दुनिया यही है, यहां तनख्वाह तो नहीं है लेकिन उत्सव जरूर है। पल में ख़ुशी और पल में सन्तुष्ट हो जाना किसान की आदत है। पूर्णिया जिला में किसानी कर रहे लोग अक्सर कहते हैं - "खेती नै करब त खायब कि और खेती स निराश भ जायब त जियब केना..."
बाबूजी अब नहीं है, यह वाक्य जब भी लिखता हूँ तो लगता है कि कुछ गलत टाइप हो गया। मन का सम्पादक डांटने लगता है लेकिन सत्य तो सत्य है। इसी साल वो मुझे अपने खेतों में अकेला छोड़ कर अनन्त यात्रा पर निकल गए। वे होते तो खेत सिंचाई पर और भी बातें बताते मुझे । और मैं और भी कुछ नया लिख पाता लेकिन ....अब उनकी याद में कुछ नया करना है।
बाबूजी हमेशा कहते थे "जब फसल तुम्हें निराश कर दे तब उससे बात करो। खेत में टहलने लग जाओ। आशा बलवती होती है, इसे दुहराने लगो।"
बाबूजी की कही बातों को याद करते हुए आज डायरी लिखने जब बैठा हूँ तो लगता है सब सुंदर ही होगा। 2016 कल आ रहा है, नये साल में नए फसलों के संग हम खूब बातें करेंगे। नवान्न की पूजा करेंगे। मक्के के दानों को सहेजेंगे, धान की बालियों से प्रेम करेंगे , गेहूं की भूरे रंग की ब्रश की माफिक बाली को माटी से स्पर्श करते देखेंगे।
आशा है मुल्क के अलग अलग हिस्सों में मेहनतकश किसानी कर रहे लोग निराश नहीं होंगे। उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम हर कोने के किसान खेत से इश्क करेंगे...माटी से सोना उपजाने की कोशिश करेंगे... हिम्मत नहीं हारेंगे।
खैर, इस वक्त फसल को पानी की जरूरत है , ऐसे में किसानी समाज खेतों की प्यास मिटाने में लगा है। 2015 के अंतिम दिन हम फसल के संग उम्मीद लिए खेतों में घूम रहे हैं। फट-फट करता पम्प सेट आज मुझे खींच रहा है। जिन खेतों में मक्का है वह आज खुश है और उसकी ख़ुशी से ही मेरे जैसा किसान अपने घर-आँगन-दुआर को खुश करेगा।
वैसे 2015 किसानी कर रहे मेरे जैसे लोगों के लिए ख़ास नहीं रहा। कम बारिश और आंधी तूफ़ान ने हमें तोड़ कर रख दिया लेकिन हम मन से कम ही टूटते हैं। क्योंकि टूट जाने पर हमारे पास बचता कुछ नहीं है। वैसे भी 12 महीने हमारे लिए कहानी ही है, जिसे हर किसान अपने अंदाज से बयां करता है या कहिये किसानी के जरिये लिख देता है।
आलू की कहानी, मक्का-धान-गेहूं की कहानी या फिर सरसों-दाल-गेहूं की कथा। हम सब तो बस खेत में बीज देकर चुप हो जाते हैं और सबकुछ कथा के नायक प्रकृति के भरोसे छोड़ देते हैं । इन सबके बीच धरती मैय्या हमें भरोसा देती रहती है कि 'सब अच्छा ही होगा' । इसी आशा के संग हर किसान 12 महीने गुजार देता है। सब अपने गुल्लक में आशा की किरण को बनाये रखने की कोशिश तो जरूर ही करता है।
यही वजह है कि आने वाले 2016 को लेकर हम सब आशावान है। देखिये न अभी एक महीने पहले की ही बात है, धान उपजाकर कोई भगैत-विदापत में डूबा है तो कोई बेटी की विदागरी में लगा है। हालांकि धान ने इस बार हमें निराश किया कम बरखा की वजह से लेकिन इसके बावजूद सब रमे हैं अपनी दुनिया में। गाम-घर की दुनिया यही है, यहां तनख्वाह तो नहीं है लेकिन उत्सव जरूर है। पल में ख़ुशी और पल में सन्तुष्ट हो जाना किसान की आदत है। पूर्णिया जिला में किसानी कर रहे लोग अक्सर कहते हैं - "खेती नै करब त खायब कि और खेती स निराश भ जायब त जियब केना..."
बाबूजी अब नहीं है, यह वाक्य जब भी लिखता हूँ तो लगता है कि कुछ गलत टाइप हो गया। मन का सम्पादक डांटने लगता है लेकिन सत्य तो सत्य है। इसी साल वो मुझे अपने खेतों में अकेला छोड़ कर अनन्त यात्रा पर निकल गए। वे होते तो खेत सिंचाई पर और भी बातें बताते मुझे । और मैं और भी कुछ नया लिख पाता लेकिन ....अब उनकी याद में कुछ नया करना है।
बाबूजी हमेशा कहते थे "जब फसल तुम्हें निराश कर दे तब उससे बात करो। खेत में टहलने लग जाओ। आशा बलवती होती है, इसे दुहराने लगो।"
बाबूजी की कही बातों को याद करते हुए आज डायरी लिखने जब बैठा हूँ तो लगता है सब सुंदर ही होगा। 2016 कल आ रहा है, नये साल में नए फसलों के संग हम खूब बातें करेंगे। नवान्न की पूजा करेंगे। मक्के के दानों को सहेजेंगे, धान की बालियों से प्रेम करेंगे , गेहूं की भूरे रंग की ब्रश की माफिक बाली को माटी से स्पर्श करते देखेंगे।
आशा है मुल्क के अलग अलग हिस्सों में मेहनतकश किसानी कर रहे लोग निराश नहीं होंगे। उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम हर कोने के किसान खेत से इश्क करेंगे...माटी से सोना उपजाने की कोशिश करेंगे... हिम्मत नहीं हारेंगे।
1 comment:
आमीन, एक दुआ ये भी कि इस साल मन की माटी पर भी फसल लहलहाए, रिश्तों की खेती भरी-पूरी हो और उम्मीदों व हौसलों के मोल दुनियादारी की मंडी में कम ना लगें।
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