Monday, December 22, 2014

यह साल भी बीत कर विगत हो जाएगा

किसानी करते हुए, साल के जिस माह से मुझे सबसे अधिक लगाव होता है, वह दिसंबर ही है. इस महीने की कोमल धूप मुझे मोह लेती है. लेकिन तभी अहसास होता है कि यह साल भी बीत कर विगत हो जाएगा- ठीक उसी तरह जैसे धरती मैया के आंचल मेँ न जाने कितनी सदियां ..कितने बरस दुबक कर छुपे बैठे हैँ।

फिर सोचता हूं तो लगता है कि हर किसी के जीवन के बनने में ऐसे ही न जाने कितने 12 महीने होंगे, इन्हीं महीने के पल-पल को जोड़कर हम-आप सब अपने जीवन को संवारते-बिगाड़ते हैं। किसानी करते हुए हमने पाया कि एक किसान हर चार महीने में एक जीवन जीता है। शायद ही किसी पेशे में जीवन को इस तरह टुकड़ों में जिया जाता होगा।

 चार महीने में हम एक फसल उपजा लेते हैं और इन्हीं चार महीने के सुख-दुख को फसल काटते ही मानो भूल जाते हैं। हमने कभी बाबूजी के मुख से सुना था कि किसान ही केवल ऐसा जीव है जो स्वार्थ को ताक पर रखकर जीवन जीता है। इसके पीछे उनका तर्क होता था कि फसल बोने के बाद किसान इस बात कि परवाह नहीं करता है कि फल अच्छा होगा या बुरा..वह सबकुछ मौसम के हवाले कर जीवन की अगले चरण की तैयारी में जुट जाता है।

किसानी करते हुए जो अहसास हो रहा है, उसे लिखता जाता हूं। इस आशा के साथ कि किसानी को कोई परित्यक्त भाव से न देखे। अभी-अभी विभूतिभूषण बंद्योपाद्याय की कृति ‘आरण्यक’ को एक बार फिर से पूरा किया है। बंगाल के एक बड़े जमींदार की हजारो एकड़ जमीन को रैयतो में बांटने के लिए एक मैनेजर पूर्णियां जिले के एक जंगली इलाके में दाखिल होता है। जिस कथा शिल्प का विभूति बाबू ने ‘आरण्यक’ में इस्तेमाल किया है, वह अभी भी मुझे मौजू दिख रहा है। पू्र्णिया जिला की किसानी अभी भी देश के अन्य इलाकों से साफ अलग है। इस अलग शब्द की व्याख्या शब्दों में बयां करना संभव नहीं है। इसे बस भोग कर समझा जा सकता है।

खैर, 2014 के अंतिम महीने में मेरे जैसा किसान मक्का, आलू और सरसों में डूबा पड़ा है। इस आशा के साथ कि आने वाले नए साल में इन फसलों से नए जीवन को नए सलीके से सजाया जाएगा लेकिन जीवन का गणित कई बार सोचकर भी अच्छा परिणाम नहीं देता है। बाबूजी बिस्तर पर सिमट गए हैं। बस यही सोचकर मेरी किसानी कथा ठहर सी जाती है। 

वैसे विगत छह -सात महीने में संबंधों के गणित को समझ चुका हूं इसलिए जीवन को लेकर नजरिया बदल चुका हूं। यह जान लेने का भरम पाल बैठा हूं कि पहाड़ियों के बीच बहती नदी पहाड़ी के लिए होती है, आम के पेड़ों में लगी मंजरियां आम के लिए होते हैं और गुलाब के पौधे पर उगे तीखे कांटे गुलाब के लिए होते हैं। यह लिखते हुए मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय के आवारगी का एक साल याद आता है और मुखर्जीनगर इलाके का एक रेस्तरां, जहां एक शाम एक दोस्त से मुलाकात हुई थी, जिसने बड़े दार्शनिक अंदाज में कहा था- “जानते हो, लगातार गिरती और उठती पलकें आंखों के लिए होती है न कि दुनिया देखने के लिए....’” 

समय के गुजरने के साथ-साथ और किसानी करते हुए उस दोस्त का दर्शन थोड़ा बहुत समझने लगा हूं। किसानी करते हुए ही यह अहसास हुआ है कि हम लोग जिंदगी को लेकर इतने दार्शनिक अंदाज में बातें इसलिए करते हैं क्योंकि हम यह भरम पाल बैठते हैं कि हम जो जीवन जी रहे हैं वह आसान नहीं है। जबकि सत्य कुछ और है। दरअसल जीवन को जटिल हम खुद बनाते हैं, मकड़ी का जाल हम-आप ही उलझा रहे हैं। दिनकर की वह कविता याद आने लगी है, जिसमें वे कहते हैं- “आदमी भी क्या अनोखा जीव है, उलझने अपनी ही बनाकर, आप ही फंसता और बैचेन हो न जगता न सोता है .....”

इन सबके बीच ठंड का असर बढ़ता जा रहा है। सुबह देर तक कुहासे का असर दिखने लगा है। सबकुछ मेघ-मेघ–बादल-बादल सा लगने लगा है। बाबूजी यदि ठीक रहते तो कहते कि इस मौसम में आलू की किसानी करते वक्त सावधानी बरतनी चाहिए, फसल नष्ट होने की संभावना अधिक रहती है। किसानी करते हुए मुझे मेघ और मौसम से अजीब तरह का लगाव हो गया है। बादलों को समझने – बुझने लगा हूं। ब्रेन हैमरेज के बाद से बाबूजी को बिस्तर पर ही देख रहा हूं, शायद वो भी आंखें मूंदे खेत-खलिहान को ही देख रहे होंगे, ऐसा भरम मैं पाले बैठा हूं। इस आशा के साथ कि मेरा भरम टूटे नहीं....

8 comments:

chavannichap said...

मैं आप के साथ कुछ समय बिताना चाहता हूं। पढ़ाई में कमजोर होने की वजह से इंटर के बाद मैंने पढ़ाई छोड़ दी थी। तब बाबूजी ने किसानी करने के लिए कहा। एक सालतक किसानी करने पर समझ गया कि पढ़ना ज्‍यादा आसान है। फिर तो सब कुछ बदल गया। दरभंगा,दिल्‍ली होते हुए वाया पेइचिंग मुंबई आ गया। कभी नहीं सोचा था कि फिल्‍म पत्रकार बनूंगा। कोई अफसोस नहीं,लेकिन मन है फिर से लौटने का। अपना घर छूट चुका है। िबाबूजी के देहांत के बाद गांव-घर से भी नाता टूट गया है। बड़ भाई सब कुछ हड़पने की युक्ति लगा चुके हैं। मैं आऊंगा किसी दिन आप के साथ कुछ समय रहने।

Anu Singh Choudhary said...

गिरीन्द्र, इतना आत्मीय लेखन! जिस गांव, मिट्टी, खेत, ज़मीन को मैं एक बाहरवाली के तौर पर देखती हूं, आपका लिखा पढ़ने के बाद उससे लगाव होने लगता है।

पुष्यमित्र said...

इस मौसम में कीड़ों का खतरा बढ़ जाता है. जैविक या रासायनिक कुछ न कुछ इंतजाम कीजियेगा. गेहूं लगाये हैं तो एक बार पटवन कर दीजिये...

हां, मेरे लिए अरण्यक बचाकर रखियेगा...

sushant jha said...

गिरिंद्र जब लिखते हैं तो कलेजा निकाल कर रख देते हैं। मुझे उनके साथ रहने का कुछ अनुभव है, सो अनुभव नामका यह ब्लॉग बिल्कुल अपना सा लगता है। कारवां जारी रहे।

Sumer Singh Rathore said...

आपके अनुभवों का सदैव इंतजार रहता है।

Unknown said...

Giri Bhai is probably the best short story writer currently out there on Blogs, in any genre or none. He puts one word after another and makes real magic with them — rustic, funny, moving, tender, soulful and portraying real picture of our villages. He is unique, and should write his experiences more frequently.
Manish K Jha

prabhat gopal said...

बातें तो काफी हैं. जिंदगी में हर चीज अपने आप में नया अनुभव लाता है. खेती किसानी और पिताजी का बीमार होना और उससे पहले कानपुर से पूर्णिया का सफर.... चलते रहिये.. यही जीवन है...

कुमार रजत said...

शब्‍द कैसे बहकर भावनाओं की नदी बन जाते हैं, इसका प्रमाण यह आलेख हैा सुखद है कि आप जैसे लोग भी किसानी कर रहे हैंा लिखते रहिए। हम पढते रहेंगे।