आज की सुबह चाय पर लिखने का मन कर रहा है। चाय पर लंबी बकैती करने का जी कर रहा है। वही चाय, जो मेरी सखी है और जिसने मुझे दार्जिलिंग से प्यार करना सीखाया। जी हां, मैं लप्चू चाय की बात कर रहा हूं। मेरी स्मृति की पोथी इस ‘चाह’ के बिना अधूरी है।
आज यह पोस्ट तैयार करते हुए 'चाह' (चाय) के बहाने जाने कितनी यादें मन के
अहाते में दाखिल हो रही है, मैं खुद
अचंभित हूं। वो पूर्णिया से सटे कसबा नामक छोटा सा इलाका, जहां
के एक अनुशासित होस्टल में मैंने ए बी सी के संग क ख ग सीखा था,वो भी कतार
में शामिल दिखा। वहां सुबह सुबह सात बजे चाह पीने मिलता था, संग
में दो ब्रेड। यह हमारे लिए ‘भोरका’ नाश्ता
होता था।
चाय के साथ पहली यारी की दास्तां कसबा के राणी सती
विद्यापीठ के मैस से शुरु होती है, जहां
हमने एकदम शुरुआती तालीम ली। मसलन शब्द से परिचय, गणित
से परिचय, सबकुछ समय
से करना..आदि-आदि। लेकिन आज याद केवल उस स्टील के ग्लास की आ रही है, जिसमें
हमें राणी सती विद्यापीठ के मैस में चाय मिला करता था, लप्चू
चाह। बांकि सारी यादें फुर्र हो चली है।
चाह
धीऱे-धीरे जिंदगी की किताब के हर पन्ने में शामिल होती चली गई। चाय की कभी तलाश
नहीं हुई, चाय हमेशा
से अपनी तलाश मुझमें करती रही, मानो मैं
उसका प्रथम पाठक हूं, जो कवि की
हर रचना पढ़ता है, कथाकार की
हर कथा को बांचता है।
खैर, दार्जिलिंग की चाय हमारी चाहत की चाह रही
है, इसके अलावा
गोल दाने वाली चाय को जैसे हमने हमेशा दूसरी नजर से देखा। आप कह सकते हैं
दार्जिलिंग की पत्ते वाली चाह या फिर वहां की कोई भी डस्ट, मेरी
सखी हो और गोलदाने वाली चाय, ऐसी पड़ोसी, जिसके
प्रति कभी आसक्ति का भाव नहीं उपजा।
चाय के साथ ऐसी ही यादें आज सुबह बिस्तर पर लेटे लेटे कुलाचें मार रही थी।
पूर्णिया का विकास बाजार और भट्टा बाजार मेरी याद में हमेशा से चांद की माफिक रहा
है। बाजार को हमने बाजार की नजर से वहीं देखा था और समझा भी था। चुपके से साइकिल
से आवारगी का क-ख-ग हमने अपने शहर के इन्हीं दो बाजारों में सीखा है। साइकिल के
पॉयडल पर जोर कम और दिल पर अधिक भी हमने वहीं सीखा।
पूर्णिया के विकास बाजार में देबू का एक दुकान है -आनंद जनरल स्टोर, जहां
लप्चू पक्का मिल जाता है। वहीं भट्टा बाजार में कुछ दुकान हैं, जहां
के शोकेस में लप्चू के रंग-बिरंग के चाह डिब्बे सजे रहते हैं। उजला, हरा, गुलाबी..मटमैला
..ये सभी रंग के डिब्बे में अपनी लप्चू आराम फरमाती है।
दिल्ली
विश्वविद्यालय में
आवारगी के दौरान भी दार्जिलिंग की चाह संग बनी रही। घर से महीने के खर्च के लिए
आने वाले ड्राफ्ट के साथ कुरियर में लप्चू चाह भी होता था। हम कह उठते थे- आहा!
जिंदगी। और जब दिल्ली-कानपुर में नौकरी
के प्रपंच में मंच सजा रहे थे
तब भी लोप्चू सखी बनी रही ,
ऐसी सखी जो हर दौर में साथ निभाने के लिए कटिबद्ध है। चाय सूफी
संगीत के माफिक खींचती रही है, कबीर वाणी
की तरह सुबह से लेकर रात तलक दृष्टि देती रही है।
अब
देखिए न, आज जब
लोप्चू का नया पैकेट खुला तो यादें मुझे कहां-कहां ले जाने लगी। सचमुच यादें कमीनी
होती है, जिंदगी के
पहले होस्टल की यादों में मुझे चाय की सुध रही,
बांकि को जैसे मैंने उड़ा दिया हो,
जबकि यादें तो यादें होती है, वो
कैसे उड़ेगी...।
वैसे
लप्चू के बहाने मेरी स्मृति की डयोढ़ी कभी खाली नहीं होगी क्योंकि चाय की चाह
हमेशा बनी रहेगी। और जिस दिन ऐसा नहीं होगा उस दिन तो हम यही कहेंगे-
“ बाबुल मोरा, नैहर
छूटो ही जाए, चार
कहार मिल मोरी
डोलिया सजावें, मोरा
अपना बेगाना छुटो जाए, आँगना
तो पर्बत भयो और देहरी भयी बिदेश, जे
बाबुल घर आपना मैं पीया के देश... “
चाय के साथ पहली यारी की दास्तां कसबा के राणी सती विद्यापीठ के मैस से शुरु होती है, जहां हमने एकदम शुरुआती तालीम ली। मसलन शब्द से परिचय, गणित से परिचय, सबकुछ समय से करना..आदि-आदि। लेकिन आज याद केवल उस स्टील के ग्लास की आ रही है, जिसमें हमें राणी सती विद्यापीठ के मैस में चाय मिला करता था, लप्चू चाह। बांकि सारी यादें फुर्र हो चली है।
खैर, दार्जिलिंग की चाय हमारी चाहत की चाह रही है, इसके अलावा गोल दाने वाली चाय को जैसे हमने हमेशा दूसरी नजर से देखा। आप कह सकते हैं दार्जिलिंग की पत्ते वाली चाह या फिर वहां की कोई भी डस्ट, मेरी सखी हो और गोलदाने वाली चाय, ऐसी पड़ोसी, जिसके प्रति कभी आसक्ति का भाव नहीं उपजा।
चाय के साथ ऐसी ही यादें आज सुबह बिस्तर पर लेटे लेटे कुलाचें मार रही थी। पूर्णिया का विकास बाजार और भट्टा बाजार मेरी याद में हमेशा से चांद की माफिक रहा है। बाजार को हमने बाजार की नजर से वहीं देखा था और समझा भी था। चुपके से साइकिल से आवारगी का क-ख-ग हमने अपने शहर के इन्हीं दो बाजारों में सीखा है। साइकिल के पॉयडल पर जोर कम और दिल पर अधिक भी हमने वहीं सीखा।
पूर्णिया के विकास बाजार में देबू का एक दुकान है -आनंद जनरल स्टोर, जहां लप्चू पक्का मिल जाता है। वहीं भट्टा बाजार में कुछ दुकान हैं, जहां के शोकेस में लप्चू के रंग-बिरंग के चाह डिब्बे सजे रहते हैं। उजला, हरा, गुलाबी..मटमैला ..ये सभी रंग के डिब्बे में अपनी लप्चू आराम फरमाती है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में आवारगी के दौरान भी दार्जिलिंग की चाह संग बनी रही। घर से महीने के खर्च के लिए आने वाले ड्राफ्ट के साथ कुरियर में लप्चू चाह भी होता था। हम कह उठते थे- आहा! जिंदगी। और जब दिल्ली-कानपुर में नौकरी के प्रपंच में मंच सजा रहे थे तब भी लोप्चू सखी बनी रही , ऐसी सखी जो हर दौर में साथ निभाने के लिए कटिबद्ध है। चाय सूफी संगीत के माफिक खींचती रही है, कबीर वाणी की तरह सुबह से लेकर रात तलक दृष्टि देती रही है।
“ बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए, चार कहार मिल मोरी डोलिया सजावें, मोरा अपना बेगाना छुटो जाए, आँगना तो पर्बत भयो और देहरी भयी बिदेश, जे बाबुल घर आपना मैं पीया के देश... “
2 comments:
Giri Bhai, Kya kamal Ka likhte hain. Har baar aapka blog post apne mail me padhne ke baad aapke agle post ka besabri se eentazaar shuru ho jata hai. Likhte rahiye hamesha yahi aashirwaad hai. Shubhkamnaen
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