Monday, June 30, 2014

कहे किसको तू मेरा, मुसाफ़िर ! जाएगा कहाँ ?

जीवन एक कहानी है। कहानी में सुख भी है और दुख भी। सुख को भी जीना है और दुख को भी समेटना है। मेरी कहानी अभी दुख का पाठ पढ़ा रही है। जीवन में यह भी देखना होगा, हमने कभी सोचा नहीं था। बाबूजी की तबियत अचानक खराब होती है और हम एक ही झटके में टूट जाते हैं। डाक्टर ने कहा कि बाबूजी को ब्रेन हेमरेज हुआ है और हमारी जिंदगी अस्पताल के आईसीयू में सिमट जाती है। जीवन में अक्सर अचानक ही सबकुछ होता है।

जीवन के इस पड़ाव पर मुझे बहुत कुछ नया अनुभव हो रहा है। यह अनुभव मुझे कबीर की उस वाणी की ओर खींच रही है, जिसमें वे कहते हैं- अनुभव गावै सो गीता। लोगबाग को समझ रहा हूं, उस मुहावरे को समझ रहा हूं, जिसमें कहा गया है कि लोग उगते सूरज को ही सलाम करते हैं.....। भंवर में साथ बहुत कम लोग साथ देते हैं। मैं उस भंवर में भी जमीन तलाश रहा हूं। धूमिल की वह पंक्ति बार-बार दोहराता हूं, जिसमें वो कहते हैं-  हम अपने सम्बन्धों में इस तरह पिट चुके हैं , जैसे एक ग़लत मात्रा ने शब्दों को पीट दिया है ।

सब बातों को जानकर भी मन का तार टूटता जा रहा है। दरअसल अज्ञात को नहीं देख पाने की वजह से हमारा मन विचलित होने लगता है। सच कहूं तो इस वक्त ज्ञान की भाषा मुझे कड़वी लग रही है। अज्ञानी बने रहने की कला सिखना चाहता हूं। वैसे यह जान रहा हूं कि ऐसे वक्त में खुद का सहारा ही हमें मजबूत रखता है। बचपन में हम रोते थे लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं रोने की आदत भी जाने लगती है। आंख के जरिए मन को साफ करने की वह कला भी हम भूल जाते हैं। कई बार लगता है कि यदि हम रो देते हैं तो मन हल्का हो जाता है लेकिन मन को कौन समझाए ...मन की सीमा रेखा भी अब टूटने से रही।

देखिए न ये सब लिखते हुए ऐसा लग रहा है जैसे मन को मैं समझा रहा हूं, उसे भरम में रखने की कोशिश कर रहा हूं लेकिन सच से भला कौन मुंह मोड़ सका है। जीवन का गणित जटिल होकर भी सरल होता है। जोड़-तोड़, गुणा भाग से नाता बनता जाता है और हम समझने लगते हैं कि अब हम ज्ञानी हो गए हैं। कॉलेज के दिनों में गीतों से अद्भूत लगाव हुआ था। जीवन के हर मोड़ को गीतों के जरिए समझने की कोशिश करता था, वह दौर अलग था। आज देखिए न, फिर से फिल्म गाइड का वह गीत सुनने को जी कर रहा है, जिसमें भरम की व्याख्या की गई है- कहते हैं ज्ञानीदुनिया है फ़ानीपानी पे लिखी लिखाईहै सबकी देखी, है सबकी जानी/ हाथ किसी के ना आई………

इन सबके बीच मेघ में बादल मंडरा रहे हैं, बारिश की उम्मीद है। किसानी करते हुए बादलों से अजीब तरह का लगाव हो गया है। बादलों को समझने बुझने लगा हूं। धान रोपनी के वक्त खेत से दूर हूं, बाबूजी को  देख रहा हूं, जिसने जीवन भर खेत से इश्क किया, खेत को जीवन समझा और जीवन को खुशहाल भी खेत से ही बनाया लेकिन आज वो बिस्तर पर लेटे हैं खेत से दूर। शायद यही जीवन है और सत्य भी। मैं फिर गीत के बोल मे खोने लगा हूं और इस पल चुप-चाप टाइप करने लगा हूं-

“…दर्द से तेरे कोई न तड़पा
आँख किसी की न रोई...
कहे किसको तू मेरा, मुसाफ़िर ! 
जाएगा कहाँ ?......” 

3 comments:

ANULATA RAJ NAIR said...

जीवन एक कहानी है.....
बाँध लिया है इस कहानी ने....

अनु

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

@ अनु जी, यह गीत भी सुनिए एक बार फिर.. https://www.youtube.com/watch?v=hzqlMuKTtK0

अशोक पाण्‍डेय said...

गिरीन्‍द्र जी, आपके दर्द को समझ सकता हूं। बाबू जी को ईश्‍वर स्‍वस्‍थ करें, यह मेरी हार्दिक प्रार्थना है।