Wednesday, August 03, 2011

अंचल की सांस्कृतिक स्मृति *

समय के बदले जगह, राष्ट्र के बदले प्रान्त में  सदन झा कहते हैं-  " रेणु का आंचलिक गाँव तीन बातों पर टिका हुआ है. ये हैं, रेणु का अनोखा लहजा (उनके लेखनी में साहित्य के अनूठे रूपों के साथ खेलने की बाजीगरी) जो उन्हें प्रेमचंद की विरासत से अलग करती है; दूसरा, उनके द्वारा अंचल और गाँव के जीवन से जुड़े सूचनाओं का अपार संग्रह और उपयोग (ग्रामीण जीवन का लेखा जोखा जो अद्भुत एन्थ्रोपोलॉजिकल डिटेल और सूक्ष्म नजरिये से भरा पड़ा है) जिसे मैं अंचल की सांस्कृतिक स्मृति कहूँगा; और तीसरा  उनके कथा कहने का अनूठापन. ये तीन कुल मिलाकर अंचल की एक बिशिष्ट छवि बनाते हैं जिसमे आंचलिक ग्राम्य के साथ अपनापे (belongingness) की अहम् भूमिका है. यह अपनापा हमे एक ख़ास एतिहासिक परिपेक्ष्य में आंचलिक ग्राम्य का एक वैकल्पिक आर्काइव प्रदान करता है."

सदन झा का यह आलेख अंचल की कथा की तरह, जिसे शब्दों के जरिए देखा, सुना और महसूस किया जा सकता है। आज यह पोस्ट तैयार करने के पीछे मेरे मानस से जुड़ा कोसी, रेणु और गुलजार का कभी न खत्म होने वाला अध्याय है। रेणु साहित्य के जरिए सदन झा पूरी तरह से कोसीमय होते दिखते हैं। वहां की बोली-बानी, घाट-बाट सब जोहते हुए वे लिखते हैं।

वहीं जब मेरी नजर फेसबुक संजाल पर कोसी नामक एक ग्रुप पर जाता है, जहां लिखा है-  "फेसबुक पर यह ग्रुप इस उद्देश्‍य से बनाया गया है कि कोसी अंचल, जिसके अंतर्गत बिहार के सात जिले - कटिहार, पूर्णिया, अररिया, किशनगंज, सहरसा, सुपौल और मधेपुरा - शामिल हैं, की साहित्‍यिक-सांस्‍कृतिक गतिविधियों और उपलब्‍धियों को एक-दूसरे से साझा किया जा सके।" तो मैं थम सा जाता हूं।

मैं कुछ दिन पहले ही इस समूह से जुड़ा था लेकिन आज सुबह पता चला कि इसे केवल कोसी अंचल के निवासियों तक सीमित कर रखा है तो 'मन तीत' हो गया। उफान मारती कोसी याद आने लगी, बाढ राहत शिविरों तक पहुंचने वाले वे लोग याद आने लगे, जो अलग अलग हिस्सों से वहां पहुंचे और लोगों की सहायता की।

कई शोध पत्र सामने नाचने लगे, जिनके टैग में कोसी अंचल के निवासी होने का प्रमाण पत्र नहीं था। मेरे लिए सदन झा उसी सूची में आते हैं, जिनके लिखे से हम  काफी कुछ सीख रहे हैं। तो सवाल उठता है कि अभी सूरत में रहने वाले और मूल रूप में दरभंगा-मधुबनी के निवासी सदन झा क्या कोसी ग्रुप से नहीं जुड़ पाएंगे? क्योंकि तकनीकी रुप से वे कटिहार, पूर्णिया, अररिया, किशनगंज, सहरसा, सुपौल और मधेपुरा से नहीं जुड़े हैं।

रेणु साहित्य पर कलम चलाने वाले इस शख्स को क्या हम इस समूह से जुड़ने का न्यौता नहीं दे पाएंगे, व्यक्तिगत तौर पर मैं दुखी हूं। यह मेरे लिए एक ऐसे घर की कहानी की तरह है, जहां बाहर से कुछ लाने पर  सख्त पाबंदी होती है।

वहीं प्रोफ़ेसर कैथरिन हैन्सन याद आती हैं, उनके कुछ पर्चे सामने दिख आते है। उनका नाम रेणु साहित्य से जुड़े विद्यार्थियों के लिए नया नहीं है। रेणु भाषा पर अध्ययन करने वाली कैथरिन पर भी यह समूह तकनीकी रूप से पाबंदी लगाती है। ऐसे में अंचल की सांस्कृतिक स्मृति इस समूह के लिए एक सीमा तय करती दिखती है और मेरे जैसे कई लोग, जिनके लिए ऐसी स्मृति पहचान की तरह है, दुखी होता है।

इस समूह को तैयार करने वाले मित्र देवेंद्र कुमार देवेश तक जब अपनी बात पहुंचाई तो उनकी प्रतिक्रिया आई-

"फेसबुक मित्रों का एक विशाल समूह आपको देता है। लेकिन जब आप अपनी बात पोस्‍ट करते हैं, तो आपकी पोस्‍ट सैकड़ों-हजारों पोस्‍टों में कहीं खो जाती है। ऐसे में आपकी पोस्‍ट तभी पढ़ी जाती है, जब रुचिपूर्वक आपकी वाल पर जाकर उसे कोई पढ़े। अन्‍यथा जिन्‍हें आप पढ़ाना चाहते हैं, उन्‍हें अपनी पोस्‍ट से tag करें। दूसरा तरीका यह है कि आप विषय या रुचि या किसी अन्‍य आधार पर समूह का निर्माण करें, ताकि आपकी पोस्‍ट समूह में शामिल सभी मित्रों तक पहुँचे। यह समूह कई तरह के होते हैं। ऐसे समूह भी हो सकते हैं, जिनपर हुए विमर्श को आप एक कमरे में हुई बातचीत की तरह बिलकुल अगोचर रखें। हमारा समूह  कोसी निवासियों को एक-दूसरे से जोड़ने और आपसी संवाद के उद्देश्‍य से बनाया गया है, लेकिन इस पर हुए विमर्श को फेसबुक का कोई भी सदस्‍य पढ़ सकता है। सिर्फ टिप्‍पणी करने या कोई पोस्‍ट करने के लिए सदस्‍यता जरूरी है और इसके लिए  भी कि समूह पर होनेवाली प्रत्‍येक गतिविधि की सूचना आप तक पहुँचे। गिरीन्‍द्र जी की आपत्‍ति पर मुझे बस इतना ही कहना है, बाकी मित्रों की क्‍या राय है।"

मैं उनके तर्क से संतुष्ट नहीं हूं। कोसी को लेकर खास अपनापा रखने वाले शोधार्थी व ब्लॉगर  विनीत कुमार भी इस समूह से जुड़ना चाहते थे लेकिन क्षेत्रीय सीमा रेखा उनके बीच आ गई। वे कहते हैं - "आगे चलकर हम चाहते हैं कि उस इलाके में लंबा वक्त गुजारें और करेंगे भी लेकिन क्षेत्रीयता की सीमाओं को हमारी भावनाएं भला कहां समझ पाती है   ?.... "


मैं फेसबुक पन्ने पर टाइप करने लगता हूं-   "कोसी, रेणु और गुलजार से मानस बना है। हाल ही में कोसी नामक एक ग्रुप से जुड़ा लेकिन आज इससे नाता तोड़ने जा रहा हूं, दरअसल इस ग्रुप को क्षेत्रीय तरीके से बांधा जा रहा है, जबकि मेरे लिए कोसी बंधन- मुक्त है। जब इस ग्रुप को भी बंधनों से मुक्त कर दिया जाएगा तो फिर मैं वहां खुद को टहलते पाउंगा, उनमुक्त...."

*पोस्ट शीर्षक- सदन झा के आलेख से कट-पेस्ट कॉपी

3 comments:

Rahul Singh said...

गंभीर विचार योग्‍य. मैंने पोस्‍ट लगाई है सोन सपूत. सोन उद्गम क्षेत्र का होने के कारण मैं उत्‍तरप्रदेश, बिहार और पटना से आत्‍मीयता महसूस करता हूं.

PN Subramanian said...

"यह मेरे लिए एक ऐसे घर की कहानी की तरह है, जहां बाहर से कुछ लाने पर सख्त पाबंदी होती है।"इन सीमा रेखाओं ने बहुत अनर्थ किया है.

देवेन्‍द्र कुमार देवेश said...

गिरीन्‍द्र जी, हमने आपकी इस पोस्‍ट कोसी/kosi समूह पर शेयर किया है। मैं फिर अपनी बात दुहराना चाहूँगा कि फेसबुक पर समूह निर्माण की सुविधा सकारात्‍मक सीमांकन के लिए ही हैं और सीमाऍं हमेशा अनर्थकारी नहीं होतीं।