Thursday, March 18, 2010

शहर के भीतर शहर की खोज

शहर की आंखें कैसी होती है, शहर के पांव कहां-कहां पहुंचते हैं..इस तरह की कई सवाल हैं जो शहर को समझने के दौरान हमारे-आपके सामने खड़े हो जाते हैं। इसी बीच जब यह पता चलता है कि शहर के भीतर कई शहर होते हैं, ठीक वैसे ही जैसे आदमी के भीतर हजारों आदमी, तब आप सवालों में डूबते ही चले जाते हैं। इसी सवाल के जवाब खोजने हम दिल्ली-एनसीआर की ओर रूख करते हैं।

दिल्ली-एनसीआर का मतलब शहर के भीतर शहर खोजने की तरह है। मेट्रोपोलिटियन भाषा में इसे सब-अर्बन सिटी कह सकते हैं, जिसकी व्याख्या समाजविज्ञानी अलग-अलग ढंग से करते रहे हैं। लेकिन इस सबके बीच शहर के भीतर शहर को जानने की उत्सुकता कम नहीं होती है, हम डूबते ही चले जाते हैं।

पहले एनसीआर के आवासीय इलाकों में घूमते हुए पहली नजर इंदिरापुरम-वैशाली-वंशुधरा पर टिकी थी। तब हम यह जान पाए कि किस प्रकार मुख्य सिटी से 15-20 किलोमीटर के दायरे में एक और शहर जन्म लेता है और वहां की आवो-हवा किस प्रकार एक झटके में तो नहीं बल्कि 5-10 साल के दौरान बदल जाती है।

 शिप्रा सनसिटी और उसकी आत्मा शिप्रा मॉल मुझे कनॉट प्लेस लगने लगता है तो वैशाली लक्ष्मीनगर। इन इलाकों की संस्कृति शहर में शहर का कॉकटेल बन रही है।

फिर नजर नोएडा पर जाती है। यहां के विभिन्न सेक्टरों की आदतें (यदि शहर को मानव की तरह देखें तो..) हमें अपनी ओर खिंचती है। सघन आबादी वाले सेक्टर 22 हो या फिर खुला दिखने वाला सेक्टर 40-41 हमें दिल्ली का अहसास कराती है। हर सेक्टरों की व्याख्या करते वक्त आपको चहुं-दिशा में फैली दिल्ली की जरूर याद आएगी।

फिर ग्रेटर नोएडा जाना होता है, पहली नजर में द्वारका लगता है लेकिन जब आप वहां के सेन्ट्रल मार्केट इलाके (ग्रेटर नोएडा ऑथरिटी के समीप) में कदम रखते हैं तो अनायास ही पंचकुला की याद आ जाती है। खुला-खुला दिखने वाला छोटा शहर लगने लगता है ग्रेटर नोएडा। इसके बीटा-1 इलाके में कदम रखते ही उत्तरी दिल्ली का सदाबहार नार्थ कैंपस याद आ जाता है। नोएडा सेक्टर 22 से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस इलाके की आवोहवा शहर दिल्ली की तेज रफ्तार से भले ही धीमी हो लेकिन मन इसका जरूर दिल्ली में ही बसता है।

वैशाली-इंदिरापुरम की तरह ग्रेटर नोएडा में प्रवासी किराएदारों की फौज अब मकान मालिक बनते जा रहे हैं, लेकिन इन सबके बीच भी इस इलाके को आप शहर के भीतर एक शांत शहर के रूप में देख सकते हैं।

यूं ही घूमते-घूमते आप भी शहर के भीतर शहर को खोजिए, जरूर एक नई चीज समझने-बूझने को मिल जाएगी।

6 comments:

मनोज कुमार said...

बेहतरीन अभिव्यक्ति!

prabhat gopal said...

shahar to badhte ja rahe hai aur gaun khatm hote.

Udan Tashtari said...

बढ़िया विश्लेषण किया है..

Nabeel A. Khan said...

Amazing, though i have been staying here for quite long but did not see the way u saw it . I wish the original city remains intact and doesn't loose its charm to legs and hands.. Keep it up

अविनाश वाचस्पति said...

आज दिनांक 24 मार्च 2010 के दैनिक जनसत्‍ता के संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में यह पोस्‍ट शहर में शहर शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।

Sadan Jha said...

बहुत बढ़ियाँ। शहर परतदार होता है। सच और प्‍याज के छिलके की तरह। परत दर परत उधरते जाते हैं लेकिन अंत नही होता। शहर बिस्‍तार लेता है, नये भोगोलिकताएं आकार लेती हैं साथ ही हमारे मन में जगहों और उनकी खुशबू एक इलाके को दुसरे से जोड़ती है:वैशाली लक्षमी नगर से, शिप्रा माल कनाट प्‍लेस से जुड़ जाता है। आपका लेख याद दिलाता है कि शहर सड़क और मेट्रो से ही नहीं, अनुभवों और यादों का ताना बाना भी है।