कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु से जुड़ी स्वर्णिम याद के रुप में विदापत नाच मंडली अब इतिहास बन गई है। रेणु की यह नृत्य व गीत परंपरा पहले ही लगभग लुप्त हो चुकी थी लेकिन अब इसके अंतिम चिराग के रुप में शेष बचे कलाकार ठिठर मंडल भी नही रहे। मंडल अब तक कोसी के इलाकों में विदापत नाच की परंपरा को सहेजे हुए थे। मंडल का गत दिनों बिहार के पूर्णिया जिले में निधन हो गया।
विद्यापति के राधा-कृष्ण के श्रृंगारिक गीतों को प्रस्तुत किया जाने वाला यह विदापत नाच कोसी की पौराणिक परंपरा की मिशाल है। 1960 में आकाशवाणी पटना द्वारा इसकी रिकार्डिग के लिये एक मंडली की स्थापना की गई थी, जिसके लिए रेणु ने पहल की थी।
रेणु ने विदापत नाच मंडली का गठन अपने पैतृक गांव अररिया जिले के औराही हिंगना में किया था। हालांकि इससे पूर्व कई मंडलियां कोसी के सहरसा, सुपौल, पूर्णिया, अररिया आदि क्षेत्रों में कार्यक्रम प्रस्तुत कर लोगों का मनोरंजन किया करती थी।
साठ के दशक में यह परंपरा लुप्त हो ही रही थी लेकिन रेणु ने इसकी एक बार फिर शुरुआत कर पुनर्जीवित करने का काम किया था। इसके बाद यह परंपरा कोसी के क्षेत्रों में 70-80 के दशक तक ही देखी गयी।
रेणु के निधन के बाद आर्थिक तंगी के बावजूद मंडल ने इस लोक कला को पांच दशकों तक जिंदा रखा था। इस लोक कलाकार की यह इच्छा अंतिम सांस लेने के बाद भी पूरी नहीं हुई कि इस कला से जुड़े लोगों को सम्मान मिले।
मंडल ने पूर्णिया सदर अस्पताल में अंतिम सांस ली। मंडल की मौत के साथ ही लोक कला के एक युग का अंत हो गया। अब न तो लोक कला मंचों से विद्यापति की भगवती वंदना गूंजेगी और न ही गांवों में विदापत के किरदार मिलेंगे। मंडल रेणु द्वारा गठित विदापत नाट्य मंडली के अंतिम सदस्य थे।
रेणु के गांव औराही हिंगला निवासी मंडल महज सातवीं कक्षा पास थे । उन्हें विदापत नाच की कला रेणु से मिली थी। रेणु की मौत के बाद भी लाख कठिनाइयों के बाबजूद उन्होंने इस लोक कला को जिंदा रखा।
मंडल द्वारा विदापत नाच की प्रस्तुति संगीत नाट्य कला अकादमी दिल्ली के सहयोग से पटना सहित कई स्थानों पर हुई थी। मगर इस लोक कलाकार को लोगों की तालियां एवं वाहवाही के सिवा कुछ नहीं मिला। इस लोक कला को जिंदा रखने के लिये उन्हें मजदूरी तक करनी पड़ी। इस लोक कलाकार की पत्नी भगवतिया देवी की मौत कैंसर से हुई थी। उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि अपनी पत्नी का इलाज करवा सके।
आज भी इस लोक कलाकार का परिवार मजदूरी पर ही अपना गुजारा कर रहा है। ठिठर के एक मात्र पुत्र धीरेन्द्र कुमार राज मिस्त्री का काम कर किसी तरह परिवार का गुजारा करते हैं।
कोसी के लोगों का कहना है कि विदापत नाच में हमेशा से कृष्णा की भूमिका निभाने वाले ठिठर का जलवा मंच पर देखते ही बनता था। 75 वर्ष की उम्र में भी मंच पर कृष्ण की भूमिका में उतरकर वे बांसुरी बजाते थे।
(नोट- इस संबंध में जागरण की साइट पर (पूर्णिया पेज ) खबर पढ़ सकते हैं।)
1 comment:
बहुत उपयोगी और मार्मिक जानकारी। खोजपरक रिपोर्टिंग के लिए बधाई और शुभकामनाएँ।
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