Tuesday, October 13, 2009

यहां गांव नहीं जीवन डूबा है...

इस समय पूरा मुल्क तीन राज्यों में हो रहे मतदान में उलझा हुआ है। इस बीच आंध्र और कर्नाटक में आई भीषण बाढ़ को जैसे हम भूलते जा रहे हैं। हम मतदान को लेकर एक से बढ़कर एक लीड खबर बनाकर परोस रहे हैं। लेकिन इस बीच में हम बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को छोड़ते जा रहे हैं। ठीक ऐसा ही कोसी के साथ भी हुआ था। बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के संवाददाता उमर फ़ारुक बाढ़ से तबाह हो गए आंध्रप्रदेश के ऐतिहासिक महत्व वाले कस्बे आलमपुर से लौटे हैं । उनकी रपट को पढ़िए और जरा सोचिए॥
गिरीन्द्र


आंध्रप्रदेश में महबूबनगर ज़िले का आलमपुर क़स्बा अब तक अपने प्राचीन मंदिरों के लिए मशहूर था पर अब वो लगभग पूरी तरह से मिट चुका है।

तुंगभद्रा और कृष्णा नदियों के संगम क्षेत्र में स्थित इस 20 हज़ार की आबादी का यह कस्बा भीषण बाढ़ में पूरी तरह डूब गया था और लगभग दो सप्ताह बाद भी वहां ठहरे हुए बाढ़ के गंदे पानी, मलबे, कीच और दुर्गंध ने स्थानीय लोगों के लिए वापस लौटना असंभव बना दिया है।

जहाँ कुछ परिवारों ने साहस का प्रदर्शन करते हुए वहां लौटने, अपने घर साफ़ करके एक नए सिरे से जीवन प्रारंभ करने की कोशिश की हैं, वहीं आलमपुर की आबादी का अधिकतर हिस्सा अभी यहाँ से पांच किलोमीटर दूर एक स्कूल में शरण लिए हुए हैं और किसी कीमत पर वापस जाने के लिए तैयार नहीं है।

आलमपुर के बीचोबीच स्थित गांधीजी की मूरत तो बाढ़ के पानी से बाहर निकल चुकी है लेकिन जितना आप इस कस्बे के अंदर जाएंगे, उतना ही पानी का स्तर और कीचड़ की गहराई बढ़ती जाएगी। दुर्गंध बर्दाश्त से बाहर होने लगेगी.

नौ प्राचीन शिव मंदिरों का झुरमुट, जो क़रीब 1300 वर्ष पुराने बताए जाते हैं, दक्षिण काशी कहे जाने वाले इस कस्बे की सीमा पर स्थित हैं। बड़ी दीवार से तुंगभद्रा के पानी को रोकने वाला यह इलाका आज पूरी तरह से जलमग्न है.

दिलचस्प बात यह है कि हिंदू समुदाय के लिए धार्मिक महत्व रखने वाले आलमपुर में हमेशा ही आधे से ज़्यादा आबादी मुस्लिम समुदाय की रही है और दोनों समुदाय हमेशा की तरह अब की बार भी प्राकृतिक आपदा की यह मार मिलजुलकर झेल रहे हैं।

मैं जब आलमपुर पहुंचा तो मुझे थोड़ी ही दूरी पर घुटनों भर पानी में कीचड़ से लथपथ खड़े सलाम मियां दिखाई दिए। उन्होंने कहा, "मैंने अपने जीवन में इतना पानी कभी नहीं देखा. अब हमारे पास कुछ नहीं रह गया है. अब हम कैसे ज़िंदा रहें, कुछ समझ नहीं आ रहा है. कुछ अच्छे लोग हमें खाना दे रहे हैं लेकिन ज़िंदगी इस तरह तो नहीं गुज़र सकती."

सलाम मियां की आँखें आंसुओं से भारी हो गई थीं और बात करना मुश्किल हो गया था।

दर्द, दुख और रोष
इस कस्बे का हर आदमी गुस्से और दुख की मिलीजुली भावनाओं में डूबा हुआ मिला। चाहे वो 27 वर्ष के मारुति वैंकटनारायणा रहे हों या 90 वर्षीय जैनब खातून, हर एक की यही मांग थी कि नया आलमपुर एक नई जगह बसाया जाना चाहिए जहाँ वो कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों की बाढ़ से बचा रहे.आलमपुर के लगभग सभी वासी अपनी ज़िन्दगी भर की कमाई से वंचित हो गए हैं और अब उन के पास शरीर पर कपड़ों के अलावा कुछ नहीं बचा है.

आलमपुर के लोग कई कारणों से सरकार से नाराज़ हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि प्रशासन ने समय रहते बाँध के दरवाज़े नहीं खोले और बांध के पिछले हिस्से के पानी से बाढ़ आ गई.

अस्सी वर्षीय कोटाम्मा का परिवार उन चंद घरों में से एक था जो हिम्मत करके सफाई की कोशिश में लगे थे. कोटाम्मा ने बाढ़ से नष्ट अपने घर की ओर इशारा करते हुए कहा, "क्या एक दिन पहले हमें चेतावनी देना सरकार का काम नहीं था. उनकी लापरवाही का परिणाम हमें भुगतना पड़ रहा है."
दो बहनों चाँद बी और आयशा का कहना था की बाढ़ में उन का दो लाख रूपए का नवनिर्मित घर और 50 हज़ार का सामान नष्ट हो गया। उनमें से एक बताती हैं, "वो सोना भी चला गया जो हमने अपनी छोटी बहन के विवाह के लिए खरीदा था। अब हमारे पास कुछ नहीं रहा."

साभार-बीबीसी हिंदी डॉट कॉम

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