Tuesday, July 14, 2009

पुराने पन्नों में कितनी बातें हैं, इन्हें फेंकने की हिम्मत नहीं होती

सात साल से इस घर से उस घर करते-करते कई चीजें इकट्ठा होती चली गई। किताबों और पन्नों का अंबार और फिर उसे सहेजने की कला सीखता रहा, लेकिन यह पता नहीं था कि एक दिन जब जिंदगी करवट लेगी तो इन पन्नों (ढेर सारे प्रिंट आउट्स) से मोह त्यागना होगा। मैं तो इसे अपना मानूंगा लेकिन अन्य सभी इसे रद्दी ही समझेंगे।

दक्षिण दिल्ली के अपने कमरे को छोड़ते समय एक बड़े से बोरे में भरकर किताब और कागजों का बंडल लेकर नोएडा में नए मकान में आया। यहां पहुंचने पर जब एक-एक कर किताबों और कागजों देखने लगा तो आंखों में दिल्ली में गुजारे पूरे सात साल तैरने लगे। किताबों से अधिक प्रिंट आउट्स से मोह बढ़ता रहा।

कॉलेज के दिनों के प्रिंट आउट्स से लेकर दोस्तों ने जो पढ़ने के लिए दिया था, सभी इकट्ठा थे। तहलका के पुराने अंक, ब्रंच (एचटी) के कुछ अंक सभी सहेज कर रखे थे, जब भी मौका मिलता उसे पढ़ता था। गांधी विहार, मुखर्जी नगर, कर्मपुरा, पांडवनगर....सभी जगहों की यादें लाडो सराय के कमरे में सहेजे रखा था।

सराय के पन्ने भी जिंदगी का हिस्सा बन चुकी थी....दरअसल इन पन्नों को पलटते वक्त सत्यवती कॉलेज की लाइब्रेरी से लेकर नई सड़क की किताबों की दुकानें और ढेर सारे दोस्तों की यादें शामिल हैं। लेकिन अब मुझे इसे हटाना था, ठीक वैसे ही जैसे नए जगह पर जाने पर कई पुराने लोग हमसे दूर हो जाते हैं।

यह एक किराएदार का दर्द है, जिसे समय-समय पर कमरों वाले घर को बदलना पड़ता है। यह उस किराएदार का दर्द है, जिसे शब्दों से गजब का मोह हो गया था और अब ये शब्द ही उसे तंग करने लगे थे, जो पन्नों मे उकरे उसके सामने बिखरे थे। अभी सदन सर के ब्लॉग पर शब्द पर उनकी लिखी पंक्तियां याद आ रही है-

words betray me.one by one,slowly,

letters fade and disappear,


leaving but a trailvast and scattered and empty,


filled with surreptitious details,


codes in mysterious fonts and colours,


they call mind boggling.


i restlessly shift my body,


leaving pages blank

6 comments:

अनिल कान्त said...

सच ही कहा है जब इस तरह का कोई मोह त्यागना पड़ता है तो बहुत दर्द होता है

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

निर्मला कपिला said...

हाँ ये तो सही है हम ना भी त्यागना चाहें तो भी ये कई बार जिन्दगी से छूटे ही रह जाते हैं समय ही नहीं होता इन्हें देखने का बदिया पोस्ट्

Udan Tashtari said...

सही कह रहे हैं..कमरा भरा है ऐसे पन्नों से..जिन्दगी के भी ना जाने कितने कमरे इन्हें सहेजे हैं:


words betray me.one by one,slowly,
letters fade and disappear,
leaving but a trailvast and scattered and empty,
filled with surreptitious details,
codes in mysterious fonts and colours,
they call mind boggling.
i restlessly shift my body,
leaving pages blank

-नोट कर लिया है जी बिना आपकी इजाजत अपने पास!!

prabhat gopal said...

bahut badhia likhlau. samay ke sath aage badhna hi jindagi hai. yaado ke sahare kab tak chalenge. jo aaj sath hai we bhi kal purane ho jayenge.

Pooja Prasad said...

ऐसे सहेजे हुए कतरे जब फेंकने पड़ते हैं तो दुख होता है। एक अच्छी कविता पढ़वाने का शुक्रिया..

अविनाश वाचस्पति said...

यह सिर्फ किराएदार का ही नहीं
हर लिखने पढ़ने वाले का दर्द है

वैसे जिंदगी के इस रंगमंच पर
हम सब किराएदार हैं गिरिन्‍द्र भाई

हम सबका घर ऐसे ही कबाड़खाने
(हमारे लिए दिमागखजाने से
)
लबालब भरा पड़ा है।