Friday, June 19, 2009

पुरानी जींस ...या केवल जींस

जींस, क्या केवल पहनावा भर है या फिर ड्रेस क्लचर में क्रांति का दूतक ? यह सवाल अभी माथे में उबाल मार रहा है। जहां तक मेरी बात है तो आठवी में पढ़ाई के दौरान जींस से दोस्ती हुई, ऐसी दोस्ती जिसे मैले से भी दोस्ती हो गई। एक नहीं दो नहीं पांच नहीं महीने भर पहनने के बाद भी जींस मुस्कुराता ही रहा, कभी यह नहीं कहा, भई- कभी हमें भी पानी में डुबोओ धूप में नहलाओ, कभी नहीं। प्यारी सखी की तरह हमेशा संग-संग चलने की कसमें खाता रहा जींस।

वीकिपीडिया पर जाकर दुरुस्त हुआ तो पता चला कि अमेरिका से चलकर जींस ने कैसे दुनिया भर के देशों की यात्रा की और घर-घर में पहंच बनाई। इसने कभी महिला-पुरुष में अंतर नहीं देखा इसे तो बस हर घर में अपनी जगह बनानी थी। 50 के दशक में अमेरिकी युवा वर्ग का यह सबसे पसंदीदा ड्रेस बन गया। नीले रंग के जींस के दीवानों को यह पता होना चाहिए कि ब्लू जींस को अमेरिकी युवा संस्कृति का द्वेतक भी माना जाता है।

दिल्ली-मुंबई से लेकर दरभंगा-पूर्णिया, कानपुर जैसे शहरों और देहातों तक जींस ने जिस तेजी पांव पंसारे हैं, वह काबिले-गौर है। बिना किसी तामझाम के जींस ने हर घर में दस्तक दी। कहीं महंगे ब्रांड के तले तो कहीं बिना ब्रांड के। एक समय जब पूर्वांचल के लोग दिल्ली में रोजगार के लिए आते तो जाते वक्त पुरानी दिल्ली की गलियों से ट्राजिंस्टर , सुटकेस आदि ले जाते और अब समय के बदलाव के साथ उनके बक्शे में जींस ने भी जगह बना ली। मटमेल धोती-लुंगी के स्थान पर जींस और ढीला-ढाला टी-शर्ट कब हमारे-आपके गांव तक पहंच गया पता ही नहीं चला।

कितना बेफिक्र होता है जींस, लगातार पहनते जाओ और फिर जोर से पटकने के बाद इसे पहन लो, इसकी यारी कम नहीं होगी। जितनी पुरानी जींस, उससे आपकी आशिकी उतनी ही मजबूत बनती जाती है। रंग उड़े जींस की तो उसकी मासूमियत और भी बढ़ जाती है।

जींस की कथा में न दलित आता है न सर्वण, यह तो सभी को सहर्ष स्वीकार कर लेता है। इसे राजनीति करने नहीं आता और न ही केवल एसी कमरे या फिर लक्जरी कारों की सवारी इसे पसंद है। यह शहरों में उतनी ही मस्ती कर लेता है जितनी धूल उड़ती सड़कों पर। आज पुरानी जींस को पहनते वक्त कुछ पुरानी यादें फिर से ताजा हो गई, जिसमें धूल के साथ फूल की कुछ पंखूरियां भी है।

3 comments:

भावना said...

tikau aur aamphahm jeans darasal mehnatkashon ki poshak se classic apparel mein tabdil ho rahi hai..sau sunar ki aik lohar ki tarj par jeans ko jitan doyein utana chamke, aisa guda rang de...se har par navin hoti hai...koi aam vastra phat jaye to wardrobe se use bahar karna padta hai..par phati jeans ko pahanne mein jijhak to dur, aik fakkad pan ke andaj bayani ka marka nazar aata hai...khair aapke nana ji ki khabar sunkar dukh hua..mere nana ji jab gujrat ke bhuj elake ke bhukamp ke din expire huye the..aur dadaji rakhi ke din...aisi ghadiyon mein santvan shabd chhote hotein...wo apne lok mein hote hai...hindu aasta ka aatam ki ajar-amar theory shayad isi liye viksit huyi hogi...ki jindgi chalti rahe.

ghughutibasuti said...

जींस भेदभाव नहीं करतीं किन्तु धीरे धीरे बहुत से कौलेज स्त्रियों को इस बिंदासपन से वचित करने में लगीं हैं।
घुघू्ती बासूती

Kapeesh Gaur said...

मेरे मित्र मेरे भाई में आपका दोस्त कपीस ही नहीं बल्कि आपके ब्लॉग का एक फैन भी हूँ काफी दिनों से आपको पढ़ रहा हूँ लेकिन आज लिख रहा हूँ... माफ़ करना बहरहाल आपकी 'जींस' को पढ़ा वास्तव में जींस उस पुराने दोस्त की तरह है जो चाहे जुदा बेशक हो जाये लेकिन उसकी यादें हमेश साथ में रहती हैं..