Monday, May 18, 2009

"भाजपा और राजग ने लोगों का भावनात्मक दोहन करने की नीति अपनाई"

हमारे मित्र और सहकर्मी संदीप कुमार पांडेय ने चुनाव नतीजों को लेकर देश के कुछ वरिष्ठ और युवा साहित्यकारों से बातचीत की। इन सभी का मानना है कि जनता ने सांप्रदायिकता, जाति और क्षेत्रवाद की राजनीति करने वाली ताकतों व आपराधिक छवि वालों को साफ तौर पर खारिज कर दिया है। पूरी रिपोर्ट पढ़िए।

लोकसभा चुनाव में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) को जीत हासिल हुई है और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) तथा वाम दलों को करारी हार का सामना करना पड़ा है। इन चुनाव नतीजों को लेकर देश के कुछ वरिष्ठ और युवा साहित्यकारों का मानना है कि देश की जनता ने सांप्रदायिकता, जाति और क्षेत्रवाद की राजनीति करने वाली ताकतों व आपराधिक छवि वालों को साफ तौर पर खारिज कर दिया है।

वरिष्ठ साहित्यकारों के मुताबिक राजग जहां वास्तविक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय भावनात्मक उभार पैदा करने की कोशिशों और भविष्य के लिए स्पष्ट नीतियों के अभाव के चलते पराजित हुआ, वहीं संप्रग की जीत उसकी नीतियों और मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि का नतीजा है।

क्या इस जनादेश को देश के सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में किसी परिवर्तन का द्योतक माना जा सकता है, यह पूछे जाने पर वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र यादव ने कहा कि ये चुनाव इस मायने में खास हैं कि इस बार जनता ने सांप्रदायिक ताकतों को पूरी तरह नकार दिया साथ ही उसने यह भी स्पष्ट किया कि छोटे और क्षेत्रीय दलों से उसका मोहभंग हो रहा है।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पुनरोदय के बारे में उन्होंने कहा कि जनता ने मायावती के भ्रष्ट और आपराधिक शासन के खिलाफ जनादेश दिया है, जबकि देश के अन्य हिस्सों की ही भांति कांग्रेस की युवाओं को आगे लाने की रणनीति भी उत्तर प्रदेश में कारगर साबित हुई।

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हार पर उन्होंने कहा कि भविष्य के लिए कोई स्पष्ट योजना न होना उसकी हार का प्रमुख कारण रहा वाम दलों की खराब स्थिति के बारे में उन्होंने कहा कि वास्तविकता को न समझ पाने और आपसी बिखराव की वजह से उनकी यह दुर्दशा हुई।

प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव और वरिष्ठ समालोचक डॉ. कमला प्रसाद कहना है कि इन चुनावों में जनता ने छिपे हुए एजेंडे लेकर चलने वाले दलों को किनारे लगा दिया। इसके अलावा यह जनादेश बाहुबलियों, धनबलियों और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और समाजवादी पार्टी (सपा) जैसे व्यक्ति केंद्रित दलों के भी खिलाफ रहा।

कांग्रेस की स्थिति में सुधार पर उनका स्पष्ट मानना है कि इसमें कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं रही बल्कि उसे अन्य दलों के खिलाफ लोगों की नाराजगी का फायदा मिला। उनके मुताबिक उत्तर प्रदेश में मायावती से नाराज सवर्णो, दलितों और मुस्लिम समुदाय के वोट इस बार कांग्रेस को मिले।

वाम दलों की पराजय पर कमला प्रसाद ने कहा कि संप्रग सरकार द्वारा किए गए सभी अच्छे कामों में वाम दल शरीक रहे, लेकिन ऐन चुनाव के पहले सरकार से समर्थन वापस लेने से वह इन कामों का लाभ नहीं उठा सके। इसके अतिरिक्त उन्हें परमाणु करार के मुद्दे पर भाजपा के साथ खड़े होते दिखने का भी नुकसान हुआ।

युवा आलोचक कृष्णमोहन ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के उभार पर कहा कि मुलायम शासन से त्रस्त जनता ने मायावती को जनादेश दिया था लेकिन उसका बहुत जल्दी उनसे भी मोहभंग हो गया और राज्य में तीसरे विकल्प के रूप मे कांग्रेस को उभने का मौका मिल गया।

वामदलों की करारी पराजय पर उन्होंने कहा कि नंदीग्राम और सिंगुर जैसे प्रकरणों ने वाम दलों की छवि को भारी क्षति पहुंचाई। इसके अलावा सैद्धांतिक विचलन भी उनकी हार का कारण बना। उन्हें दोहरेपन का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। दरअसल वह खुद उन कमियों का शिकार हो गए जिनके लिए वह अन्य दलों की आलोचना किया करते थे।

भाजपा और राजग की हार पर उन्होंने कहा कि उसने वास्तविक मौजूदा मुद्दों की बजाय लोगों का भावनात्मक दोहन करने की नीति अपनाई जो अंतत: उनके लिए नुकसानदेह साबित हुई। उन्होंने कहा कि आतंकवाद एक बड़ा मुद्दा है जिस पर राष्ट्रीय बहस छेड़ी जा सकती थी लेकिन भाजपा अफजल की फांसी और वरुण गांधी के बयानों पर ही उलझी रह गई।

ज्ञानपीठ युवा लेखन पुरस्कार से सम्मानित युवा किस्सागो चंदन पांडेय का कहना है कि इन चुनावों से राष्ट्रीय स्तर पर तो कोई सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव परिलक्षित नहीं होते लेकिन फिर भी इस बार लोगों ने जातिवाद, बाहुबल और ब्लैकमेलिंग की राजनीति को खारिज किया है जो अपने आप में एक बड़ा परिवर्तन है।

वाम दलों की स्थिति को चंदन उनकी हार न मानते हुए कहते हैं कि आम तौर पर उनके वोटों का प्रतिशत इसके आसपास ही रहता है लेकिन उनकी सीटों में जो कमी आई वह स्थानीय मुद्दों पर विफलता के कारण आई।

राजग की हार पर उन्होंने कहा कि उनके पास वास्तव में मुद्दों का अभाव था क्योंकि उन्हें अच्छी तरह पता था कि बेरोजगारी के वैश्विक कारण है और यह स्थानीय मुद्दा नहीं बन सकता। इसके अलावा ठोस आर्थिक नीतियों के अभाव में उन्हें पता था कि वह महंगाई और मंदी को मुद्दा नहीं बना सकते क्योंकि उनके पास खुद इससे निपटने की कोई योजना नहीं थी।

चंदन ने देश के मीडिया जगत को दक्षिणपंथी रुझान वाला करार देते हुए कहा कि यह मीडिया ही था जो राजग को लगातार मुकाबले में बता रहा था।

युवा कथा लेखिका वंदना राग का मानना है कि इन चुनावों में भाषाई विद्रूपता को अपनाने वाले लोगों की पराजय हुई है और जनता ऐसी छोटी बातों से ऊपर उठी है। उन्होंने कहा कि बुढ़िया और गुड़िया जैसे निचले स्तर के संबोधनों के प्रयोग ने लोगों को यह जता दिया कि देश के बड़े नेता बुजुर्गो और महिलाओं को कितना सम्मान देते हैं।

वाम दलों की हार पर उन्होंने कहा कि नंदीग्राम व सिंगुर जैसे मुद्दों ने उसे नुकसान तो पहुंचाया ही साथ ही जनता ने भी सरकार का साथ छोड़ने के बाद उसे विकास विरोधी मान लिया।

3 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

यह रिपोर्ट है जिस में अधिकांश वाम और प्रगतिशील साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएं हैं। जिन में कुछ भी विशेष नहीं। शायद इसी कारण से टिप्पणियाँ यहाँ नहीं हैं।

संदीप कुमार said...

क्या वामपंथी विचारक इस लायक भी नहीं कि उनकी बात पर टिप्पणी ही की जा सके....

विनोद कुमार पांडेय said...

सही मे जनता ने दिखा दिया,सभी को की वो क्या चाहती है,अब

देखा राजनीति का खेल,पटरी से उतरी अब रेल,
कहते भैया कर लो मेल,जो करते थे टालमटेल.

देख के पप्पू की औकात,पिघल गया ठंडा इस्पात,
बाहुबली हुए छूमंतर,खूब गिरी उन पर ब्रजपात.