हर शहर कुछ कहता है और फिर पूछ ही लेता है- यहां कौन रहता है। मैं यहां अपने शहर में डूबे इंसान की बात कर रहा हूं। हम जब दूर होते हैं अपने शहर से तो उसकी सबसे अधिक याद आती है। तब हम यह नहीं सोचते कि आखिर हम क्यों निकले थे अपने शहर से। यदि खुद में डूब कर देखें तो पता चलता है कि अपने शहर से निकलने के बाद एक नया शहर आप में समां जाता है और हम-आप उसी के हो जाते हैं।
मिट्टी ग्लोबल होती जा रही है। ऐसी बात नहीं कि अपना शहर उस शहर से अलग है जहां अभी हम ठिकाना बनाए हुए हैं। लोग-बाग अब वहां भी वैसे नहीं रहे, जैसा आपने शहर को छोड़ते वक्त महसूस किया था। बदला है तो केवल बाजार। यह सच है और अच्छा भी की जो चीजें, जो सुविधाएं महानगरों में आपको मिल रही है वह आपको अपने शहर में आसानी से मिल जाती है।
बडे-बड़े बोर्डों से पटा शहर, घरों के ऊपर मोबाइल कंपनियों के लहरहाते टॉवर आपको एक बाजारू शहर से मिलाता है। हमें इससे कोई दिक्कत नहीं है कि अपना शहर अब सो कॉल्ड बड़े शहरों से कदम ताल मिला रहा है लेकिन इसमें उसकी पहचान गुम होकर रह जाए तो फिर मुश्किल का अहसास होता है।
मैं थोड़ा लोकल हो रहा हूं, मुझे अपने शहर की याद आ रही है। लंबे समय से दूर रहने के बाद मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है। पता नहीं सभी के साथ ऐसा होता है कि नहीं। अनुराग कश्यप की बोली में कहूं तो इमोशनल अत्याचार कर रहा हूं (भले ही इसका कोई मतलब न हो), पर अपना शहर अपना होता है। जहां तक पहचान गुम होने वाली बात है तो वह किसी शहर के मूल में हो रहे बदलाव पर निर्भर करता है।
मैं यहां अपने शहर पूर्णिया के मूल में हुए बदलावों का जिक्र कर सकता हूं। इसे आप आम बदलाव कह सकते हैं जो हर जगह हुआ। कुछ चीजें साफ बदल जाती है। मसलन मेरे शहर के जलेबी और कचौरी पर भी बर्गर-सेंडवीच का जादू चल गया है। बोली-बानगी में बांग्ला-मैथिली की चहक गायब होती जा रही है और चौक की शाम बदल गई है। हम-आप बस इन बदलावों के गवाह बनते जा रहे हैं।
6 comments:
अनुराग कश्यप से ही बात आगे बढ़ाते हैं गिरींद्र गुलाल के एक गीत में पीयूष कहते हैं
...जंगल की बस्ती में है शोर क्योंकि ये दिल मांगे मोर... तो भइया गिरींद्र गांव की याद आती है आनी चाहिए अच्छी बात है पर वाही नहीं होनी चाहिए नहीं तो थाम लेगी आपकी रफ्तार को फिर आप उस गति से तरक्की नहीं कर पाइएगा जिससे चाहते हैं। गांव की याद आनी चाहिए फाॅर अ चेंज जाइए घू घाम आइए किसी माल से बियर शियर पीके तरोताजा होइये क्या गांव तांव का रोना लेकर बैठ गए आप साला आॅफिस के एसी में भी पसीना छूट गया
जंगल की बस्ती को मोरों की बस्ती पढें
बदलावों के बारे में विस्तार से लिखिए...क्या-क्या हो रहा है...
क्या विकल्प है सिवाय साक्षी भाव से ताकने के..
aapne jo likha bilkul shahi hai. Apna city apna hi hota hai.
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