दुष्यंत को पढ़ते वक्त महसूस किया कि उन्होंने केवल देश के आम आदमी से ही हाथ नहीं मिलाया बल्कि उस आदमी की भाषा को भी अपनाया और उसी के द्वारा अपने दौर का दुख-दर्द गाया...। अपने साहित्य के जरिए ठीक रेणु भी ऐसा ही करते थे । दुष्यंत लिखते हैं-
"जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।"
अब पढ़िए साए में धूप से उनकी यह रचना-
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है
वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है
सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर
झोले में उसके पास कोई संविधान है
उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप
वो आदमी नया है मगर सावधान है
फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है
देखे हैं हमने दौर कई अब ख़बर नहीं
पैरों तले ज़मीन है या आसमान है
वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेज़ुबान है
3 comments:
दिल के तार न छेड़िए गिरीन्द्र, मज़ा आ गया दुष्यंत को पढ़कर.. तबियत ठीक हो गई ना, माशाअल्लाह, दुरुस्त रहिए ताजादम रहिए.
मज़ा आ गया ...इसे पढ़वाने के लिए शुक्रिया
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
आभार आपका दुष्यंतजी को पढने का मौका दिया।तबियत का खयाल रखिये।
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