कल लिखा था .....शहर की दास्तां सुना है । इस पर विनीत की टिप्पणी पढ़कर लाग मानो जो बात मैंने आधी कही उसे वे पूरा कर रहे हो। वैसे उड़न तश्तरी ने भी कहा- " आप तो हमारे शहर की बात खुले आम कर रहे हैं। "
अब पढ़िए विनीत ने क्या कहा-
सिर्फ शहर ही क्यों वो हर जगह और इलाका जो अपने उपर शहर का सेहरा बांधना चाहता है (मानो विनीत कह रहे हों, यहां सब कुछ दिखावा है।)
" सुना है शहर में भावुक होने को बीमार कहा जाता है
सुना है शहर में पत्थर दिल होना, प्रैक्टिकल होना कहलाता है
सुना है गांवों में सफल होने और सार्थक होने के बीच अब भी एक विभाजन रेखा बरकरार है
लेकिन यहां तो यही सुनने में आया है कि जो सफल है
वही सार्थक भी है और हो सकता है।...
क्या बेहतर हो कि सुनी-सुनाई बातों पर भरोसा ही न करें
वही करें जो शहर का चलन करने को कहता है। "
3 comments:
एक सच्चे मर्म को पकड़ा है आपने।
सच....
सार्थकता सीधे सीधे सफलता से जुडी है. यदि सफलता नहीं मिली तो प्रयास सार्थक कहाँ रहा?
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