रेणु और गुलजार दोनों ही प्रिय, दोनों ही को पढ़कर मेरा मानस बना है. शायद मेरे जैसे बहुतेरे हैं. दोनों में एक अजीब किस्म की रहस्यात्मकता है। लेकिन गुलजार जहाँ इस दुनिया को सूफियों के समान देखते हैं और परोसते हैं, पिरोते हैं ऐसे जैसे की दुनिया घने कोहरे की चादरों में लिपटा हो वहीं रेणु में यह रहस्यवाद बहुत अलग तरह से आता है।
रेणु के लिए दुनिया किसी चादर में लिपटा नहीं है. दुनिया कराकती धुप से परेसान है. रूमानियत हर तरफ बेचारगी में, भूख और गरीबी में कैद है. लेकिन रेणु भी रहस्यात्मक हैं। यह दुनिया को बयां करने के क्राफ्ट को लेकर. इनके यहाँ शव्दों की अर्थ-बहुलता से जीवन की आन्तरिकता का अहसास होता है।
रेणु और गुलजार में यह फर्क इस कदर है की गुलजार पहले से गढ़े भाषाई थाती की गरिमा का मान रखते हैं, व्याकरण उनके लिये पूजनिय है। रेणु इस परंपरा, इस थाती को तोड़ते मरोड़ते हैं उनके लिये किरदारों का अनुभव, उनके कथानक का भाषाई परिवेश सबसे अहम है एक ही वाक्य में तदभव, तत्सम, देशज, विदेशज और शुद्ध संस्कृत सभी कुछ।
गुलजार की भाषा जहां बहुत सहजता के साथ सीमा पार जाती है। रेणु अपने पाठकों को अपने पात्रों के भौगोलिक, सामाजिक और अतित की ओर खींचते हैं। गुलजार के लिये भूगोल मायने नहीं रखता है वे अंतर्राष्ट्रीय है, यूनिवर्सल हैं जबकि रेणु भूगोल की मर्यादा को समझते हैं उनके यहां जगह, स्थानिकता स्पेस में विलीन नहीं होता।
क्षेत्रियता महज उपस्थित मात्र नहीं है यह हमारे भाषाई संस्कारों को परिमार्जित करती चलती है। हमे मजबूर करती है कि हम भाषा-भंजक बने, अनुभबों को बयाँ करने के रहस्य को उदगार देने हेतु।अनुभव जो अपने क्षेत्रियता में लिप्त है। अनुभव जो आपको ठोस जमीन पर ला खड़ा कर देता है अनुभव जो महज गुलपोश के महक की तरह हवा में नहीं तैरता है।
(नोट- सदन झा की यह टिप्पणी रेणु की पुण्यतिथि पर पोस्ट रेणु की दुनिया- जिसके बिना हम अधूरे हैं.. में आई थी।)
5 comments:
इन दोनों की तुलना अनुचित है। रेणु प्रतिबद्ध हैं। जो गांधी मैदान में जेपी की रैली में सरकारी सम्मान लौटा देते हैं। गुलजार कई जगह सेकन्ड हैन्ड प्रतीत होते हैं।
गुलज़ार साहब को आपका शुक्रिया मानना चाहिए कि आप उनकी तुलना सूरज से कर रहें हैं ..."
अफलातून जी असहमत ...के गुलज़ार सेकण्ड - हेंड प्रतीत होते है .मेरी राय में दोनों की तुलना अनुचित है ....गुलज़ार एक लोकप्रिय माध्यम से जुड़े रहकर भी अपनी प्रतिबद्दता को बचाए रखने में कामयाब है ....ओर अक्सर उस आदमी तक पहुँचते है जो साहित्य का भी नहीं है ...यही उनकी सबसे बड़ी खासियत है .उनकी नज्मे अपने साथ एक खास अर्थ ले कर चलती है ....जिसको पकड़ने के लिए एक खास अहसास ..एक खास सोच की जरुरत है .....
रेनू जी भी मेरे फेवरेट है ...मैला आँचल बेजोड़ है ......पर किसी एक को बेहतर कहने के लिए दूसरे को ख़ारिज करना ठीक नहीं है.....मेरे लिए दोनों एक खास किस्म की प्रतिभा से लेंस व्यक्ति है
"गुलज़ार साहब को आपका शुक्रिया मानना चाहिए कि आप उनकी तुलना सूरज से कर रहें हैं " - इस टिप्पणी के लेखक से सहमत हूँ .
hadd hai yaar...ye koi tulna nahi hai ...dono ka lekhan kitna alag hai ..fir bhi jan manas ko kitna priy hai ye bat kahi gayi hai .......gulzar apne sooraj ke kshitiz hain...aur enu ji apne kshitiz ke... aur hum sab alag alag jagah se alag alag waqt pe inko nihar paate hain ....
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