इन दिनों सरुप बेन की किताब "उम्मीद होगी कोई " पढ़ रहा हूं। पढ़ते-पढ़ते मन ''उचट'' (आखिर कहर बरपाने वाले लोग कैसे होंगे यार॥आदमी ही होंगे न....या ..) जाता है. पुस्तक का संपादन करने वाले रविकांत के शब्दों में '' दिमाग की चमड़ी मजबूत करके ही इसका संपादन कर सका''.
गोधरा के बाद का गुजरात, २००२-२००६ के बीच का गुजरात. इसी बीच राही मासूम रजा की कविता गंगा और महादेव पढने को मिली. आप "उम्मीद होगी कोई " पढ़ रहे हैं या नहीं, पर इस कविता को फिलहाल पढिये।
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
मेरे उस कमरे को लूटो जिसमें मेरी बयाने जाग रही हैं
और मैं जिसमें तुलसी की रामायण से सरगोशी करके
कालीदास के मेघदूत से यह कहता हूँ
मेरा भी एक संदेश है।
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है
मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुँह पर फेंको
और उस योगी से कह दो-महादेव
अब इस गंगा को वापस ले लो
यह जलील तुर्कों के बदन में गढा गया
लहू बनकर दौड़ रही है।
4 comments:
अजी हमें भी पढवा दो ये किताब।(ये मत कहना कि खरीद लो) और यह रचना अभी किसी ब्लोग पर पढी। मार्मिक है।
शायद समझ पाते वो...इंसान कहलाने की जिद पर अड़े लोग।
एकदम सुशील भाई, जरूर। जरा मैं पूरा पढ़ लूं। काफी खुशी होती है आपके कांमेट को पाकर। हौसला बढ़ता लिखने का।
सही पाठ पढ़ाने के लिए शुक्रिया
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