मुंबई में आतंकवादी हमलों से हम लड़ ही रहे थे कि न्यूज रूम में मेरे साथी शैलेन्द्र ने कहा, विश्वनाथ प्रताप सिंह नहीं रहे। ७७ वर्ष की अवस्था में राजा मांडा ने अलविदा कह दिया।
मैं कुछ देर के लिए ठहर सा गया। उनकी कविताओं और पेंटिग्स से मुझे खास लगाव है। उनसे कई लोगों की खट्टी-मिठी यादें जुड़ी होगी। वे पूर्व प्रधानमंत्री की श्रेणी में आने के बाद खूब पढ़ा लिखा करते थे।
हमारे समाचार संपादक ने बताया कि जब पूर्व प्रधानमंत्री पी।वी।नरसिम्हा राव का निधन हुआ था तो उन्हें अपने अखबार के लिए किसी पूर्व प्रधानमंत्री से एक आलेख लिखवाना था, तो उन्होंने वाजपेय़ी और गुजराल साहेब के अलावा वीपी से भी संर्पक स्थापित करवाया।
गुजराल और वाजपेयी जी से बात नहीं बनी। वीपी अस्पताल में थे। उनके पीए ने उन्हें अखबार के बारे में जानकारी दी और वीपी तुरंत तैयार हो गए और कहा, अपने आदमी को भेजिए...
ऐसे भी थे वीपी।
वे राजनीति के दांव-पेंच के अलावा कविता और पेंटिग भी किया करते थे। उनकी याद में उन्हीं की कुछ कविताओं को पेश कर रहा हूं।
1 .
अपनी ही पहचान बनाने में जब
सब अपनी जान लगाए हों
तो बताओ यहां कैसे जान-पहचान हो....
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२.
जो एक्का भी न बन सके
और दुग्गी भी
मौका पड़ने पर बादशाह
और फिर गुलाम भी
वही है जोकर
यानी "जो वक्त कहे सो कर"
इसलिए
सत्ता में भी ऐसा ही पत्ता
सबसे ज्यादा चलता है
गड्डी चाहे जितनी फेंटो
जोकर
सबके ऊपर हावी रहता है।
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३.
कितनी रंगीनियां झेल चुका हूं
सिनेमा-स्क्रीन की तरह
औरों के लिए
कहानी
अपने लिए
कोरा का कोरा हूं।
(कविता "मंजिल से ज्यादा सफर" पुस्तक से )
8 comments:
जानते हो गिरीन्द्र यूँ तो हमारे यहाँ मृतात्माओं की आलोचना की परम्परा नही है लेकिन मैं कभी रजा मांदा का कायल नही रहा. न उनके व्यक्तिगत जीवन का ना ही राजनीतिक.
वीपी को जैसे भाग्य से राजा की गद्दी मिली वैसे ही राजनीती की और दोनों ही उनसे नही सम्हली. मंडल का मंजर मैं भूला नही हूँ दोस्त मेरे दो दोस्तों ने आत्महत्या कर ली थी.
जुर बात मंडल या कमंडल की नही है मेरे भाई बात है नीयत की....
कवितायें लिखना अगर आत्मा की पवित्रता का द्योतक होता तो फ़िर बात ही क्या थी...
chaliye swarg me mandal lagoo ho jaayega.
राजा मांडा को नहीं, एक कवि, चित्रकार, एक संवेदनशील मनुष्य और एक असफल राजनेता को मेरा अन्तिम सलाम!
मैं संदीपजी से पूरी तरह सहमत हूं कि मरणोंपरांत किसी की आलोचना नहीं की जाती। पर मुझे लगता है कि शायद आपको वी पी के सक्रीय जीवन की पूरी जानकारी नहीं है। ऐसा होता तो शायद आप यह पोस्ट ना लिखते।
इतनी गुमनाम मौत , इसी को कहते है स्वर्ग ,नरक यही है एक समय पुरे भारत की उम्मीद आज कोई खबर भी नहीं
इश्वर उनकी आत्मा को शांति दे
वी पी सिंह जी के निधन पर श्रद्धांजली सहित उनकी एक और कविता याद आती है -
मुफलिस से
अब चोर बन रहा हूं
पर
अब इस भरे बाजार से
चुराऊं क्या..
यहां वही चीजें सजीं है
जिन्हें लुटाकर
मैं
मुफलिस हो चुका हूं।
संदीप पांडे और बेनामी से सहमत होते हुए यही कहना चाहता हूँ कि "धरती का एक बोझा हटा…", प्रधानमंत्री बने रहने के लिये न वे मंडल का भूत पिटारे से निकालते, न ही आडवाणी उसकी काट के लिये कमंडल निकालते, न ही यह देश इतना बँटता… एक नेता की एक गलती देश का कितना नुकसान कर सकती है, यह भारत के इतिहास में भरा पड़ा है…
राजा मांडा के गृहजनपद के सिविल लाइन्स में यह खबर सुनकर शाम को मिठाइयॉं बटी है।
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