छोटे शहरो की शन्ति कभी उबाउ नही होती है, खासकर् बडे शहरो की सरगर्मी और दफ्तरी वादविवादो की गहमागहमी से! किन्तु छॉटे शहरो की सौम्य खामौशी भी अब मुखर होने लगी है. जो कुछ बडे शहरो मे तेजी से हो रहा है, वही कुछ छॉटे शहरो मे कुछ धिरे से हो रहा है, लेकिन हर जगह इन दिनो चीजे इतनी तेजी से और लगातार बदल रही है कि धीरे-धीरे "बदलाव" शब्द का मतलब भी बदलने लगा है.
छॉटे शहरो मे भी विभिन्न स्तरो पर बदलाव आया है. चौक- चौराहौ पर शाम ढ्लते ही लगने वाली भीड जो पहले गाव की चौपालो की तरह लगती थी , अब वह शहरी मानसिकता को ओढे लगती है. परिवार मे ऐसे फासले आये है कि नजदिकी रिश्ते भी अपना वजुद खोने लगे है. आत्मालाप का चलन ज्यादा हो गया है, तो दुसरी और सन्वादहीनता की छविया परिवार मे ज्यादा छाने लगी है.
आखिर ऐसा क्यो हो रहा है? एक बात जो उभर कर मेरे सामने आ रही है- वह है-छॉटे शहरो के तकरीबन प्रत्येक परिवार से युवा आज बडे शहरो मे जा रहे है... चाहे वे दिल्ली विश्वविद्याल्य मे पढ्ने आए हो या फिर गुरगाव या नोयाडा के काल सेन्टरो मे काम करने, ये "व्याइट्-कालर माईग्रेन्ट्" खुद तो यहा आकर बदल ही जाते है और जब भी (कभी कभार) अपने शहर जाते है तो वहा भी वही कुछ देखना चाहते है- बदलाव.
ये युवा अपने शहरो को धडक-धडक धुआ उडाते आधुनिक महानगरो के आमन्त्र्ण पर पिछे छोड आए आज के "बन्टी और बबली" है! यकिन मानिए एसा करने से अपना शहर पिछे छुट जाएगा. मैलाआचल का प्रशान्त हो या परतीपरीकथा का जीतु इन की तरह हमे आगे बढ्ना होगा.
3 comments:
इसे ही कहते हैं भौतिक वाद का अंधा दौड़,आज कोई नहीं जो अपने राज्य के विषय मे सोचें जो यहाँ चले आते हैं वो बदलाव चाहते जरुर हैं मगर लाने का प्रयास नहीं करना चाहते…मुद्दा अच्छा उठाया है…
हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी।
आओ बिचारें आज मिलकर ये समस्याएं सभी ।।
--- मैथिली शरण गुप्त
हम चल पड़े,तो चल पड़े;मत पूछना-- क्यों दौड़ते हैं?
मंदपंथी, रूढ़ियों को आज पीछे छोड़ते हैं ।
खूश्बू लिए उस पुरबाई का आज रुख चल मोड़ते हैं;
रुक! ठहर! मेरे आंगन में सम्मुख तेरे कर जोड़ते हैं ।।
--- विजय
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