मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
Thursday, October 12, 2006
'डॉक्टर मामू का ढाबा'
मामू की कोशिश होती है खाने के दौरान सभी ग्राहकों से एक बार बात ज़रुर करने की
पीएचडी कर के लोग प्राध्यापक बनते हैं, शोध करते हैं किताबें लिखते हैं लेकिन एक शख्स ऐसे भी हैं जो पीएचडी कर के ढाबा चला रहे हैं लेकिन अपनी मर्ज़ी से अपनी खुशी से.
ये हैं दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय में चल रहा 'मामू का ढाबा'. मामू इसलिए क्योंकि पूरे परिसर में उन्हें इसी नाम से जाना जाता है.
मामू का पूरा नाम परिसर में शायद ही कोई जानता है और मामू की पत्नी भी उन्हें इसी नाम से बुलाती हैं.
उर्दू भाषा में पीएचडी करने के बाद ढाबा चलाने की क्यों सोची. यह सवाल मामू को नाराज़ नहीं करता है.
वो कहते हैं "ऐसा नहीं है कि मुझे कोई और नौकरी नहीं मिली लेकिन नौकरी में करने में दिलचस्पी कम ही रही. आज़ाद ख्याल हूं और खाना बनाने का शौक रखता था. बस शुरु कर दिया ढाबा."
मामू ईटीवी में उर्दू ख़बरें पढ़ चुके हैं. रेडियो से भी वास्ता रहा है और एक ज़माने में सेंटर फॉर डेवलपिंग स्ट्डीज़ में योगेन्द्र यादव के साथ काम कर चुके हैं.
पढ़ाई के मामले में मामू कभी फिसड्डी नहीं रहे और जेएनयू के उनके नंबर काफी अच्छे रहे. मामू की शायरी और दिलजोई पूरे कैंपस में लोकप्रिय है और शायद ही कोई ऐसा शख्स है जो उन्हें नहीं जानता हो.
खाना और खिलाना
मामू के ढाबे का एक उसूल है. खाने के साथ हंसी फ्री मिलती है.
यह हाज़िरजवाब इंसान भोजन के साथ साथ तफरीह भी करता है ताकि लोग खुशी खुशी खाना खा सकें.
मामू बताते हैं कि पहले वो घर पर और उससे पहले होस्टलों के मेस में खाना बना कर दोस्तों को खिलाते थे और तारीफें सुनकर उन्हें लगता था कि मज़ाक किया जा रहा है.
मामू का किचन सबके लिए खुला है जहां मामू एक सब्ज़ी खुद ज़रुर बनाते हैं
वो कहते हैं " पहले तो लगा कि लोग झूठी तारीफ़ कर रहे हैं लेकिन इसी तारीफ़ को सच मानते हुए अपने दिल की बात मानने की शुरुआत कर दी. "
यह पूछे जाने पर कि क्या जेएनयू में आने वाले छात्र उन्हें देखकर क्या सोचते होंगे, मामू कहते हैं कि उनका फलसफा साफ है. दिल की बात मानो, दिल जो कहता है वो करो बस.
ढाबा चलाने में मामू की कई लोग मदद करते हैं. भीड़ हो तो दोस्त काउंटर पर बैठ जाते हैं ताकि मामू खाना बनाने और खिलाने का काम कर सकें.
तो क्या दोस्ती के नाम पर दोस्त पैसे कम देते हैं, मामू कहते हैं "नहीं, नहीं, ऐसे इक्का दुक्का ही लोग हैं. बाकी सब समझते हैं कि मेरा भी धंधा है. "
भविष्य
अपने भविष्य के बारे में मामू कहते हैं कि वो आने वाले दिनों में खान पान से ही जुड़े रहना चाहते हैं.
मौका मिले तो दिल्ली में एक बेहतरीन रेस्तरां खोलने और रेसिपी की क़िताब लिखने की योजना है मामू की.
वो कहते हैं "पीएचडी की है. पीएचडी का अर्थ ही है रिसर्च करना, विषय कोई भी हो. रिसर्च करना सीखा है. शौक खाना बनाने का है तो क्यों न इसी क्षेत्र में रिसर्च किया जाए.जल्दी ही किताब लिखूंगा खाना बनाने पर. "
मामू के ढाबे के खाने के बारे में लोगों की राय बस यही है कि खाना घर जैसा मिलता है. किचन में घुसकर जो चाहे बनवाया जा सकता है. पैसे बाद में भी दिए जा सकते हैं.
सबसे बड़ी बात खाने के साथ मामू का हंसी मजाक हाजमा ठीक करने का भी काम करता है.
चलते चलते मामू का पूरा नाम बता दिया जाए. पूरा नाम ' मोहम्मद शहज़ाद इब्राहिमी'.
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1 comment:
where is it located? i wud like to pay a visit some day........
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