Saturday, March 04, 2023

रेणु की दुनिया

आज अपने रेणु का जन्मदिन है। फणीश्वरनाथ रेणु, जिन्होंने गाम की बोली-बानी, कथा-कहानी, गीत, चिडियों की आवाज, धान-गेंहू के खेत, इन सभी को शब्दों में पिरोकर हम सबके सामने रख दिया और हम जैसे पाठक उन शब्दों में अपनी दुनिया खोजते रह गए।

रेणु का लिखा जब भी पढ़ता हूँ खुद से बातें करने लगता हूँ। रेणु के बारे में जबसे कुछ ज्यादा  जानने-समझने की इच्छा प्रबल हुई, ठीक उस समय से पूर्णिया जिले की फिजा में धुले उनके किस्से इकट्ठा करने में लग गया। घाट-बाट में रेणु को खोजने लगा।

 

किसानी करने का जब फैसला लिया, तब भी रेणु ही मन में अंचल का राग सुना रहे थे और मैं उस राग में कब ढल गया, पता भी नहीं चला। गाम में रहते हुए रेणु से लगाव और भी बढ़ गया। पिछले एक दशक से लगातार रेणु की माटी-पानी में हूँ। एक दशक में बहुत कुछ बदला है। यह बदलाव कभी-कभी चौंकाता भी है लेकिन बदलाव तो सत्य है।

 


गाम-घर में जब भी किसी से मिलता हूंँ, बतियाता हूँ तो लगता है कि जैसे रेणु के रिपोतार्ज पलट रहा हूँ। दरअसल रेणुकी जड़े दूर तक गाँव की जिंदगी में पैठ बनाई हुई है। ठीक आँगन के चापाकल पर जमी काई (हरे रंग की, जिस पर पैर रखते ही हम फिसल जाते हैं..) की तरह।

 

रेणु ही थे जिनका मानना था कि ग्राम समुदायों ने तथाकथित अपनी निरीहता के बावजूद विचित्र शक्तियों का उत्सर्जन किया है। वे संथाली गीतों के जरिए कई बातें कहा करते थे। उन्होंने एक संथाली गीत के जरिए कहा था – “जिदन संकु-संगेन , इमिन रेयो-लं सलय-एला। इस गीत का भावानुवाद है- सुख के जीवन के लिए, यहाँ आइए, यहाँ ढूंढ़ना है और पाना है..

 

सच कहूँ तो रेणु की यह पंक्ति मुझे गाम के जाल में उलझाकर रख देती है, मैं इस जाल से बाहर जाना अब नहीं चाहता, आखिर जिस सुख की खोज में हम दरबदर भाग रहे थे, उसका पता तो गाम ही है। आप इसे मेरा भरम मान सकते हैं लेकिन मैं इसे अपने हिस्से का  सच मानता हूँ।

 

हाल ही में पटना स्थित रेणु के आवास की स्थिति का जिक्र कई जगह पढ़ा। कई लोगों ने कहा कि सरकार को रेणु के घर, उनके सामानों को संभालकर रखना चाहिए। ऐसी बातों को सुनकर लगा कि यह सब देखकर रेणु क्या कहते। दरअसल सरकार पर इतना भरोस क्यों किया जाए, क्या समाज का कुछ दायित्व नहीं है। रेणु हम सबके हैं, हम सब मिलकर चाहें तो कुछ भी हो सकता है।

 

खैर, रेणु को पढ़कर ही डायरी और फिल्ड-नोट्स का महत्व समझ पाया। मुझे याद है सराय-सीएसडीएस के स्वतंत्र शोधार्थी के तौर पर जब टेलीफोन बूथों पर काम कर रहा था, तब सदन झा सर ने फिल्ड-नोट्स तैयार करते रहने की सलाह दी थी, शायद वे रेणु की बात हम तक पहुँचा रहे थे। पिछले दिनों को याद करता हूँ तो लगता है कि रेणु जीवन में कब आए? 2002 में शायद। कॉलेज और फिर सराय-सीएसडीएस और सदन झा सर। बाबूजी कहते थे कि रेणु को पढ़कर नहीं समझा जा सकता है। रेणु को ग्राम यात्रा के जरिए समझा जा सकता है। टुकड़ों –टुकड़ों में गाम को देखते –भोगते हुए रेणु बस किस्सा कहानी लगेंगे, रेणु को समझने के लिए रेणु का सुरपति राय बनना होगा, लैंस से नहीं, बिन लैंस से गाम घर को देखना होगा।

 

दरअसल रेणु छोटे-छोटे ब्योरों से वातावरण गढ़ने की कला जानते थे। अपने ब्योरों, या कहें फिल्ड नोट्स को वे नाटकीय तफसील देते थे। मक्का की खेती और आलू उपाजकर जब मैं की-बोर्ड पर टिपियाना शुरु करता हूँ तो तब अहसास होता है कि फिल्ड नोट्स को इकट्ठा करना कितना बड़ा काम होता है। और यह भी अहसास होता है कि अनुभव  को लिखना कितना कठिन काम है।

 

हर दिन गाम-घर करते हुए लगता है मानो रेणु की दुनिया आंखों के सामने आ गयी है। दरअसल उनका रचना संसार हमें बेबाक बनाता है, हमें बताता है कि जीवन सरल है, सुगम है, इसमें दिखावे का स्थान नहीं के बराबर है। रेणु अपने पात्रों और परिवेश को साथ-साथ एकाकर करना जानते थे। वे कहते थे कि उनके दोस्तों ने उन्हें काफी कुछ दिया है। वे खुद लिखते हैं-

 

इन स्मृति चित्रों को प्रस्तुत करते समय अपने लगभग एक दर्जन करीबी लंगोटिया यारों की बेतरह याद आ रही है। वे किसानी करते हैं, गाड़ीवानी करते हैं, पहलवानी करते हैं, ठेकेदार है, शिक्षक है, एमएलए हैं, भूतपूर्व क्रांतिकारी और वर्तमानकालीन सर्वोदयी हैं, वकील हैं, मुहर्रिर हैं, चोर और डकैत हैं। वे सभी मेरी रचनाओं को खोज-खोज कर पढ़ते हैं-पढवाकर सुनते हैं और उनमें मेरे जीवन की घटनाओं की छायाएं ढूंढ़ते हैं। कभी-कभी मुझे छेड़कर कहते हैं- साले उस कहानी में वह जो लिखा है, सो वहां वाली बात है न ?” (पांडुलेख से)

रेणु के साहित्य में डूबे रहने की आदत से ही पता चला कि मनुष्य की आकृति, रूप-रंग, बोलचाल, उसके व्यक्तित्व की वास्त्विक कसौटी नहीं है और न ही बड़ी-बड़ी इमारतों से देश की प्रगति मापी जा सकती है। दरअसल बहुत बार जिन्हें हम भद्दा और कुरूप समझते हैं, उनमें मनुष्यता की ऐसी चिनगारी छिपी रहती है, जो भविष्य को भी जगमग कर सके। जैसा मैला-आंचल में रेणु ने बावनदास जैसे चरित्र को पेश किया। उपन्यास में बावनदास की मौत पर रेणु की मार्मिक टिप्पणी की है- दो आजाद देशों की, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की ईमानदारी को, इंसानियत को बावनदास ने बस दो ही डगों में माप लिया। (मैला आंचल पृष्ठ संख्या 320)

 

आज रेणु के जन्मदिन पर मैं बस यही सब सोच रहा हूँ। कई लोगों की स्मृति मन में उभर गई है, सैकड़ों लोगों की। ऐसे लोग जो चनका रेसीडेंसी आए, जिनके संपर्क से मन समृद्ध हुआ, मन के द्वार खुले। आज वे सब याद आ रहे हैं। ये सब मेरे लिए रेणु के पात्र ही हैं। संपादक, पत्रकार, फोटोग्राफर, गीतकार, सिनेमा बनाने वाले, अभिनेता, गायक, अधिकारी, व्यवसायी, विधायक, मंत्री, किसान....ये सब मेरे लिए रेणु के लिखे पात्र की तरह जीवन में आए और मन में बस गए। एकांत में भी ये लोग ताकत देते हैं। ये सब मेरे लिए परती परिकथा की तरह हैं। परती परिकथा का परानपुर कितने रंग-रूप में रेणु हमारे सामने लाते हैं। गाँव की बदलती हुई छवि को वे लिख देते हैं। वहीं मैला आंचल का मेरीगंज देखिए। हर गांव की अपनी कथा होती है, इतिहास होता है। इतिहास के साथ वर्तमान के जीवन की हलचल को रेणु शब्दों  में गढ़ देते हैं। गाँव की कथा बांचते हुए रेणु देश और काल की छवियां सामने ला देते हैं।

 

एक पाठक  के तौर पर रेणु की कृति 'परती परिकथा' मुझे सबसे अधिक पसंद है। दरअसल इस किताब में ज़िंदगी धड़कती है। इस कथा का हर पात्र मुझे नायक दिखता है। भवेश, सुरपति, मेरी, ताजमनी, जितेंद्र ..इन सबकी अपनी-अपनी दृष्टियां हैं। कथा के भीतर कथा रचने की कला रेणु  के पास थी। कथा में वे मन की परती तोड़ते हैं, यही मुझे खींच लेती है। दरअसल खेती करते हुए हम यही करते हैं, परती तोड़ते हैं।

 

और अंत में रेणु की ही वाणी- दुहाई गांधी बाबा....! गांधी बाबा अकेले क्या करें! देश के हरेक आदमी का कर्त्तव्य है...!


(पूर्णिया और अब अररिया जिले के औराही हिंगना गाँव में आज के ही दिन यानि 4 मार्च 1921 में रेणु का जन्म हुआ था। । मेरे लिए रेणु तन्मयता से किसानी करने वाले लेखक हैं, क्योंकि वे साहित्य में खेती-बाड़ी, फसल, किसानी, गाँव-देहात की बातें करते हैं। )

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