Monday, January 24, 2022

एक अधूरा सपना: सपने में रेणु से गुफ्तगू!


इन दिनों जब अपने मन के सुख के लिए  लिखना लगभग छूट गया है कि तभी अचानक सामने मुस्कुराते हुए रेणु आ जाते हैं। एक हाथ में काले रंग की प्यारी डायरी है तो दूसरे में छड़ी!


कमरे में आते ही बोलते हैं- "शिकायत है कि लिखते नहीं हो, जबकि मुझे पता है कि फील्ड नोट्स का खाता- खतियान जमा किये हुए हो! अरे लिखो भाई, गाम घर, शहर कस्बा की बातों को जगह दो। " फिर वे धप्प से सोफे पे बैठ गए। डायरी को टेबल पर रख दिया और छड़ी को दरवाजे के सहारे छोड़ दिया।

कुछ देर के लिए उन्होंने आँखों को मूंद लिया। ओह! क्या रूप था वो, अपरूप! फिर अचानक वे बोल उठते हैं- औराही गए थे क्या? जवाब में मैंने कहा- "दो बरख हो गए, इतना उलझा रहा कि रानीगंज से आगे निकला ही नहीं बाबा! "

रेणु ने फिर चुप्पी साध ली। वे अपनी हथेली को देखने लगे और बोल उठे - " हथेली पढ़ने की कला सबके बस की बात नहीं। तुम्हारी अलमारी में नागार्जुन की सभी किताबें हैं, देखकर आत्म सुख मिल रहा है, आँख को भी और मन को भी। मैं उनका कर्जदार हूँ। मेरे खेतों में उन्होंने रोपनी की थी, वे असल यात्री थे। अब जब अपनी दुनिया में हम मिलते हैं तो लोक परलोक की बात करते हैं..." यह कहते हुए रेणु हँसने लगे।

टेबल पर रखी डायरी को पलटते हुए रेणु कहते हैं, " चाय नहीं पिलाओगे? और हाँ,घर में नबका चावल है क्या? दरअसल नबका चावल का खिचड़ी खाये बहुत दिन हो गए। " मैंने तुरंत हामी भरी।

तबतक चाय आ चुकी थी, रेणु के हाथ में चाय की प्याली भी इतरा रही थी। वे फिर लिखने की बात करने लगे। उन्होंने कहा- " फसल और गाँव की राजनीति, इन दोनों पर बात करने वाले लोगों को मैं हमेशा ढूंढता रहता हूँ। जिस तरह गुलाब का पौधा होता है न, ठीक उसी तरह के लोग होते हैं, जो फसल और गाम घर की राजनीति की बात समझते हैं और इस मुद्दे पर बतियाते हैं। गुलाब फूल को सब छूना चाहता है लेकिन उसके पौधे को कांटे की वजह से कोई छूना नहीं चाहता। धरती की बातें करने वाले लोगों को लेकर भी मेरी यही राय रही है। उसकी बातों को तो लोगबाग सुन लेंगे लेकिन उसे बर्दाशत नहीं करेंगे लंबे वक्त तक और आगे चलकर वही भिम्मल मामा बन जाता है, जिसे तुमलोग पागल करार देते हो। "

रेणु आज फसलों की दुनिया में फिर से डूबने की चाहत में थे।  वह कहने लगे, " क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारे जिला में पहले धान का नाम बहुत ही प्यारा हुआ करता था, मसलन 'पंकज' 'मनसुरी', 'जया', 'चंदन', 'नाज़िर', 'पंझारी', 'बल्लम', 'रामदुलारी', 'पाखर', 'बिरनफूल' , 'सुज़ाता', 'कनकजीर' , 'कलमदान' , 'श्याम-जीर', 'विष्णुभोग' । समय के साथ हाइब्रीड ने किसानी की दुनिया बदल दी। "

मैं बस उनको सुनना चाहता था, चुपचाप। उनकी बातों को सुनते हुए देहातीत सुख का आभास होता है। लेकिन रेणु ने जब धान की बात छेड़ दी  तो मन में कई गीत गूंजने लगे, जो अब खेत में सुनाई नहीं देते हैं। सुख की तलाश हम फसल की तैयारी में ही करते हैं। एक गीत पहले सुनते थे, जिसके बोल कुछ इस तरह हैं -
"सब दुख आब भागत, कटि गेल धान हो बाबा..."

हम खेती किसानी दुनिया के लोग अन्न की पूजा करते हैं। धान की जब भी बात होती है तो जापान का जिक्र जरूर करता हूं। जापान के ग्रामीण इलाक़ों में धान-देवता इनारी का मंदिर होता ही है। रेणु को मैंने आज बातों ही बातों में जापान के एक देवता की कहानी सुना दी।

जापान में एक और देवता हैं, जिनका नाम है- जीजो। जीजो के पांव हमेशा कीचड़ में सने रहते हैं। कहते हैं कि एक बार जीजो का एक भक्त बीमार पड़ गया, भगवान अपने भक्तों का खूब ध्यान रखते थे। उसके खेत में जीजो देवता रात भर काम करते रहे तभी से उनके पांव कीचड़ में सने रहने लगे।

मेरी इस बात को सुनकर रेणु मुस्कुराने लगे और बोल उठे- खिचड़ी खिलाओगे! हम सब उन्हें डाइनिंग टेबल के पास ले जाते हैं। वे चाव से अन्न ग्रहण करते हैं। भोजन के बाद वह अचानक अलग रंग में आ जाते हैं, और कहते हैं, " कभी कभी लगता है क्या जीवन में कोई कथा संपूर्ण होती है..। इस दौरान मुझे जीवन आंधी के माफिक लगने लगती है, सबकुछ उड़ता नजर आने लगता है। एक दिन किसी से बात हो रही थी तो उसके भीतर का भय मुझे सामने दिखने लगा। वह भय मौत को लेकर थी। मौत शायद सबसे बड़ी पहेली है, हम-सब उस पहेली के मोहरे हैं। "

ओह! मेरी नींद टूट जाती है। सपना अधूरा रह जाता है, रेणु से गुफ्तगू बांकी ही रह जाती है। अक्सर जब तबियत बिगड़ती है, बुखार उतरता- चढ़ता है, रेणु सपने में आ ही जाते हैं।

सुबह में इस मौसम के फूल पर और दूब व पत्तियों पे पानी ठहरा रहता है। मुझे इन ठहरे पानी से बहुत लगाव  है। दूब-मेरा सबसे प्रिय, जिसे देखकर, जिसे स्पर्श कर मेरा मन, मेरा तन हरा हो जाता है। गाम में हर सुबह इसकी सुंदरता देखने लायक होती है। ओस की बूंद जब दूब पर टिकी दिखती है तो लगता है यही जीवन है, जहाँ हरियाली अपने ऊपर पानी को ठहरने का मौक़ा देती है। 

दरअसल इस उग्र बनते समाज में हम कहाँ किसी को अपने ऊपर चढ़ते देख पाते हैं। ऐसे में कभी दूब को देखिएगा, गाछ की पत्तियों को देखिएगा, वृक्षों में बने घोंसले को देखिएगा और हाँ, अपने प्रिय लेखकों से सपने में गुफ्तगू कीजियेगा। 

1 comment:

Nitish Tiwary said...

आपने लिखना छोड़ दिया तब इतना बढिया पोस्ट लिखा है। बहुत खूब।