जब युवा थे तो साहित्य में रुचि थी। फिर राजनीति में रच बस गए। राजनीति में नीति को पकड़ कर रहे इस वजह से जीवन के उस मोड़ में जहां लोग ऊंचाई को हासिल करने के लिए जुगत में लगे रहते हैं, वो चुपचाप गाम में बस गए।
एक ऐसा शख्स जिसे कभी संजय गांधी ने बिहार में मंत्री पद का ऑफर दिया था लेकिन उन्होंने यह कहकर ठुकरा दिया कि जब अपने लोग कमजोर हो जाएं तो उन्हें छोड़ना नहीं चाहिए बल्कि उनका साथ बनाए रखना चाहिए। यह कहानी उस वक्त की है जब लोकदल को कांग्रेस तोड़ रही थी। हेमवती नंदन बहुगुणा के लोगों को संजय गांधी तोड़ने में लगे थे। इसी दौरान संजय गांधी ने बहुगुणा के सबसे करीबी पद्मनारायण झा ' विरंचि ' जी बुलाकर कहा कि वह कांग्रेस में शामिल हो जाएं और बिहार में मंत्री पद ले लें। इस प्रस्ताव को विरंचि जी ने ठुकराते हुए कहा - " संजय जी, अभी बहुगुणा जी की पार्टी कमजोर है। लोग उनका साथ छोड़ रहे हैं। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं उनके साथ ही रहूंगा। मैं रमानंद तिवारी का शिष्य हूं और समझौता करना नहीं जानता। "
यह सुनकर संजय गांधी ने कहा था - "मिस्टर झा, मेरा ऑफर कोई ठुकराता नहीं है, आप अलग हैं। "
राजीव गांधी जब पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे थे तो शूट पहनकर इस शख्स के पास आते हैं , और पूछते हैं - " मैं ठीक लग रहा हूं न ! "
देवेगौड़ा जब प्रधानमंत्री बने तो इस शख्स को बिहार के इनके गांव से बुला लाए। फिर मुलाकात के लिए उन्हें प्रधानमंत्री निवास बुलाया गया। संयोग से उस वक्त मुलाकातियों में धीरू भाई अंबानी भी थे, वह भी पीएम के कॉल का इंतज़ार कर रहे थे और बड़ी बैचेनी से लॉबी में थे। दरअसल अंबानी से पहले उसी शख्स को मिलना था। अचानक उस शख्स ने अंबानी से कहा - "आपको शायद जरूरी काम है, जाइए मिल आइए प्रधानमंत्री से..।" अंबानी जब मुलाकात कर बाहर आते हैं तो कहते हैं - " मुझे पहली बार कोई ऐसा शख्स मिला है जो प्रधानमंत्री का समय किसी और को दे दिया हो, मिस्टर झा आप प्लीज बंबई आइए, मेरा नंबर रखिए। " लेकिन इस शख्स ने कभी अंबानी से मुलाकात नहीं की।
ऐसी कई कहानियों को खुद में ही समेटे पद्मनारायण झा ‘विरंचि’ जी अनंत यात्रा पर निकल गए। कल जब मधुबनी जिला स्थित उनके गांव खोजपुर जाना हुआ तो लगा राजनीति में एकांत का भी स्थान है। उनके बेटे प्रशांत झा और सुशांत झा को बस देखता रह गया। उनका घर मुझे आश्रम की तरह लगा। वहां कोई हड़बड़ी का आभास नहीं हुआ, संतुष्टि का अनुभव हुआ। हालांकि पिता के बिना जीवन क्या होता है, इसे लिखना सबसे कठिन काम है।
समाजवादी चिंतक पद्मनारायण झा ‘विरंचि’ जी मैथिली के लेखक एवं कवि थे। वे सोशलिस्ट पार्टी के मुखपत्र 'जनता' के संपादक भी रहे थे। 1969 से 1973 तक वह मैथिली पत्रिका ' मिथिला मिहिर ' में खूब लिखते थे।
सुशांत भाई कह रहे थे कि यदि सबकुछ ठीक रहता तो शायद उनके पिता राजनीति में अपने अनुभव को किताब शक्ल देते, लेकिन नियति को शायद कुछ और ही मंजूर था।
कभी सत्ता के शीर्ष पर रहे लोगों के करीब रहने वाले विरंचि जी अचानक सबसे दूर हो गए, वह भी अपनी इच्छा से। शायद उन्होंने राजनीतिक लोगों से लंबी दूरी बना ली थी या कह सकते हैं कि वह इस समय के अनुकूल ही नहीं रहे, उनका मन और मिजाज आज की राजनीति के लिए नहीं बना था।
इच्छा थी उनसे लंबी बातचीत की, प्रधानमंत्रियों की कहानी उनसे सुनने का मन था। अपने परिवार को उन्होंने इन सब चीजों से बहुत दूर रखा।
ऐसे वक्त में जब हर कोई अपने और अपने परिजनों के लिए हर कुछ करने को उतारू है, हमें पद्मनारायण झा ‘विरंचि’ जी को समझना चाहिए।
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